शुक्रवार, 27 दिसंबर 2013

Ghazal

अब स्याह निगाहों में, इक रंग गुलाबी है,
ये इश्क की लौ है जो, इस शब ने जला दी है।

रूटीन से जीने में ,तकलीफ नहीं  लेकिन,
क्यों नींद भला शब भर, आती है न जाती है।

कमरे में घुटन सी है, कुछ सोच नहीं पाता,
कमबख्त मुई खिड़की, खुलती ही ज़रा सी है।

जख्मों की दुकानों पर, मरहम है बहुत बिकता,
बम्बई के बजारों ने , ये बात सिखा दी है।

माना कि अना तुमको, करती थी बहुत रुसवा,
आ जाओ कि हमने वो, दीवार गिरा ली है।

बुधवार, 18 दिसंबर 2013

Ghazal

सुझाने कुछ नयी तरकीब, सब बेनाम आये हैं,
शहर में गर्म है चर्चा, कि हम नाकाम आये हैं।

बहुत गाढ़े समय में, तुमने पकड़ाए थे जो रूपये,
कमाए लाख फिर भी, वो ही अब तक काम आये हैं।

उन्ही के नाम पर आती थी, मेरी चिट्ठियाँ सारी,
पिता खुश हैं कि ख़त अबके, हमारे नाम आये हैं।

मेरा घर है महकता रात भर, मीठी सी खुशबू से,
कि माँ के साथ परसों, टोकरी भर आम आये हैं।

भटक कर थक चुके हैं, जिन्दगी को ढूँढ करके अब,
तुम्हारे पहलू में करने, जरा आराम आये हैं।

मंगलवार, 17 दिसंबर 2013

Ghazal

छुपा डाले हैं दिल के दाग सब, मँहगे लिबासों में,
चलो कुछ होश बाकी है अभी, हम बद-हवासों में।

कोई तो मयकदे की टेबलों को, साफ़ कर दे अब,
फ़साने आह भरते हैं, यहाँ खाली गिलासों में।

फरक दिखता नहीं है, बंद आँखों से हमें फिर भी,
चमक मलमल की ढूंढे फिरते हैं, मोटे कपासों में।

बहुत ऊँची फ़सीलें हैं, तेरे चारों तरफ जानम,
हमारी सीढियाँ कमज़ोर हैं, घुन है असासों में।

मुझे अखबार की सुर्खी हमेशा झूठ लगती है,
खबर सच की लगाई है, यूँही अक्सर कयासों में।

 फ़साना- story फ़सीलें- walls असास- base कयास-guess

शनिवार, 14 दिसंबर 2013

Bikhre sher

बालों में यूँ तो आ गयी, चाँदी- लटें भी कुछ,
ये दिल मगर, समझा है कब उम्रों की सरहदें।

गुरुवार, 12 दिसंबर 2013

Ghazal

कल ही कहूँगा, आज तो वो सोगवार है,
दिल तब सुनेगा मेरी, इतना ऐतबार है।

आ चूम के पेशानी, अब मैं अलविदा कहूँ,
पर याद ये भी रख, कि तेरा इंतज़ार है।

कैदे-अना में है, कोई है चाहतों में बंद,
खुद पे किसी भी शख्स का ,कब इख़्तियार है।

मूँदे पलक है, भागता रहता है रात- दिन,
जाने शहर ये किस लिए, यूँ बेक़रार है।

सोचा सिवाए खुद के भी, सोचूँगा कुछ मगर,
खुद में उलझके आज भी, दिल शर्मसार है।

अब भी हैं सारी मुश्किलें, लेकिन तुम्हारे साथ,
हर खार जैसे बन गया, इक हरसिंगार है।

सोगवार : ग़मगीन
पेशानी: forehead
कैदे-अना : in captivity of ego
इख़्तियार: कब्ज़ा,control
खार: काँटा

बुधवार, 4 दिसंबर 2013

Bikhre sher

आज फिर से हैं चुप ये दरवाजे, घर से आहट कोई नहीं आती,
आज फिर सो गया है वो थककर,आज फिर देर हो गयी शायद।

मंगलवार, 3 दिसंबर 2013

Bikhre sher

अदीबों* को नहीं कल से , कोई हिचकी सताएगी,
किताबें अपनी मैंने , आज सब तुलवाके बेचीं हैं।

अदीब - writer,thinker

शुक्रवार, 29 नवंबर 2013

Ghazal

सलामत हैं मेरी रातें, है साबुत हर सहर मेरा,
मगर जो लुत्फ़ लेता था, कहाँ है वो जिगर मेरा?

मेरे ख्वाबों को लाखों चाहिए, तामील होने तक,
मेरा शायर मगर खुश है, उसे प्यारा सिफ़र मेरा।

मेरी हर बदगुमानी को, सही कहने लगे हैं सब,
मुझे अपना समझता ही नहीं, अब ये शहर मेरा।

परेशानी यही बस एक है, तनहाई चुनने में,
जो मैं चुप हो गया तो, होता है खामोश घर मेरा।

बड़ा होकर वो फिर अपनी, नयी दुनिया बसा लेगा,
बड़े नाजों से पलता है, मेरे दिल का ये डर मेरा।

मंगलवार, 26 नवंबर 2013

Ghazal

तसल्ली की सदा आई, है इक बेशक्ल कोने से,
जो टूटे तो कहाँ जुड़ते, हैं कुछ रिश्ते पिरोने से।

करा रक्खी हैं ख़त की कॉपियाँ ,कुछ इस लिए क्यूँकी,
है धुल जाती इबारत, गमज़दा हर्फों पे रोने से।

नमी आँखों में है लेकिन, मेरे कुछ दोस्त कहते हैं,
कि मैंने पा लिया सबकुछ, फितूरे-इश्क खोने से।

हुआ मायूस लेकिन खैर, वो ये बात तो समझा,
खिलौने कब उगे हैं, इस तरह मिट्टी में बोने से।

वुजू करके लहू से, झुक गया हूँ सजदे में अक्सर,
बहुत खुश हूँ, मैं उसके हर जगह हो कर न होने से।

सोमवार, 25 नवंबर 2013

Bikhre sher

कमर पर बोझ है, झुक जाता हूँ हर बुत के आगे मैं,
अना मगरूर है लेकिन , झुकाए से नहीं झुकती।

अना- ego मगरूर- घमंडी, proud

शुक्रवार, 22 नवंबर 2013

Bikhre sher

मुश्किल है यूँ लफ्जों को, नुमाइश पर लगा पाना,
कीमत कम तभी है फलसफों की, चप्पलों से भी।
 (Talking to a "True" Gandhian)

गुरुवार, 21 नवंबर 2013

Ghazal

सुना जब बिक गया घर, शादियों की देनदारी से,
चमक फीकी पड़ी है चेहरे की, गोटा-किनारी से।

कमर रस्मे-परस्तिश में,मेरी अब है झुकी जाती,
बहुत उकता गया हूँ, बेवजह की खाकसारी से।

रहूँ जब होश में, तो सैकड़ों ग़म हैं सुलाने को,
तुम्हारी याद, बामुश्किल जगायी है खुमारी से।

सिवाए प्यार के तेरे, कमाई कुछ नहीं मेरी,
उमर कट जाएगी लेकिन, बस इतनी रेजगारी से।

चलो साझा करें हम, आज से सब गलतियाँ अपनी,
कहीं दूरी न बढ़ जाये, मुई मेरी- तुम्हारी से।

शुक्रवार, 1 नवंबर 2013

Bikhre sher

कभी तो जिंदगी, मेरी भी देखे वाकया कोई,
फ़कत इक ख़्वाब पे ऐसे, भला कबतक लिखूँ नज्में।

गुरुवार, 24 अक्तूबर 2013

Bikhre sher

निकलकर नॉविलों से, तंज़ करते हैं बहुत मुझपर,
मेरा रूटीन जीना देख, सब किरदार हैरां हैं।

@the beginning of a regular, univentfull day.
तंज़ - satire
किरदार- Role, actor

सोमवार, 14 अक्तूबर 2013

Ghazal

अगर बस साँस लेना, होना है, बेशक मैं होता हूँ,
मगर सब मायने जीने के, यूँ होने में खोता हूँ।

हदें बढ़ने लगी हैं, जबसे सपनों की मेरे दिल में,
मैं खेतों से परे, सड़कों पे थोड़े ख्वाब बोता हूँ।

चरागों की तरफ से, जबसे आँखें मूँद ली मैंने,
जेहन बेनूर है लेकिन, सुकूँ के साथ सोता हूँ।

बचा के चन्द टुकड़े रोटियों के, कल की खातिर मैं,
बहुत शर्मिंदा होकर फिर उन्ही ख्वाबों को रोता हूँ।

मेरी गज़लों के सारे हर्फ़, अक्सर भीग जाते हैं,
तुम्हारे दर्द के किस्से, मैं जब इनमें पिरोता हूँ।

गुरुवार, 3 अक्तूबर 2013

Bikhre sher

उनींदी आँख से मिलकर गले, फिर रूठ बैठा है,
गवारा ही नहीं उसको, मेरा यूँ देर से आना।

शुक्रवार, 20 सितंबर 2013

Bikhre sher

भले सौ कोशिशें कर लूँ, सिफ़र ही हाथ आता है,
मैं खुद में ढूंढता हूँ, खुद को जब, खुद से ही घबराकर।

सिफ़र = zero

बुधवार, 18 सितंबर 2013

Bikhre sher

लग के मुझसे रोया था, कल शब न जाने कब तलक,
चाँद के रुखसार पे, अश्कों के अब भी दाग हैं।

मंगलवार, 17 सितंबर 2013

Bikhre sher

जब कि मेरी जंग में, मैं ही मुखालिफ हूँ मेरे,
क्यूँ मैं लड़ने के तरीके, पूछता हूँ गैर से।

सोमवार, 16 सितंबर 2013

Bikhre sher

अपनी फरियाद लिए, और कभी आऊँगा,
आज महफ़िल में तेरे, शोर बहुत ज्यादा है।
in response to the crowded ganpati @ visarjan

Bikhre sher

हम आइना नहीं हैं, कि टूटेंगे इक दफे,
किस्तों में टूटने का मज़ा, हमसे पूछिए।

मंगलवार, 3 सितंबर 2013

Bikhre sher

यकीं उनको नहीं होता, हमारी खुश्क आँखों का,
पड़ी है चाँद-चेहरे पे , कई सलवट सवालों की।

गुरुवार, 29 अगस्त 2013

Bikhre sher

हँसी, मुस्कान, रिश्ते की बड़ी कमजोर कड़ियाँ हैं,
इसे मजबूत रखता है, बस इक साझा सा गम अपना।

सोमवार, 26 अगस्त 2013

Bikhre sher

भले सौ कोशिशें कर लूँ, कहाँ टिकते हैं मुट्ठी में,
ये दौलत, रेत, पानी और कुछ दिल से जुड़े रिश्ते।

गुरुवार, 22 अगस्त 2013

Bikhre sher

जेहन का एक हिस्सा, जिसमें ख्वाबों की हैं कुछ कब्रें,
बहुत मासूम, बेहद खूबसूरत दिखता है मुझको।

सोमवार, 19 अगस्त 2013

Bikhre sher

मुझे अफ़सोस है, समझाया क्यूँ मँहगाई का मतलब,
कि बच्चे अब, खिलौनों के लिए भी जिद नहीं करते।

गुरुवार, 15 अगस्त 2013

Bikhre sher

तुझे मिलने की कुछ वजहें, अभी भी हैं बची दिल में,
कि कुछ शिकवे-गिले , हमने अभी महफूज़ रक्खे हैं।

सोमवार, 12 अगस्त 2013

Bikhre sher

अधूरी ख्वाहिशों की पर्चियाँ, जेबों में जो रख लूँ,
तो फिर धुंधली नज़र से नज़्म का चेहरा नहीं दिखता।

मंगलवार, 30 जुलाई 2013

एक मार्केटिंग मैनेजर की आत्मव्यथा..

मैं सपने बेचता हूँ।
आज के, कल के,
और कभी कभी तो बरसों बाद के भी।

इन सपनों की ज़रुरत है तुम्हें।
इसका अहसास मैंने दिलाया है,
तुम्हारे जेहन में घुसकर,
तुम्हारे डर को कुरेदकर।

मैं और मुझ जैसे सैकड़ों लोग,
झांकते हैं,
तुम्हारे गुसलखानों में,
तुम्हारी रसोई में,
तुम्हारे ख्वाबगाहों में।

मुझे पता है,
कितनी दफा ब्रश करते हो तुम,
कैसे रोता है तुम्हारा बच्चा गीली नैपी में, और
क्यूँ तुम्हारे चेहरे की चमक खो गयी है,
इन धूल भरी गर्म आँधियों में।
मुझे ये भी पता है,
कि तुम्हे नींद नहीं आती आजकल
क्योंकि तुम्हारे पड़ोसी के घर
तुमसे बड़ी कार खड़ी हो गयी है।

झांकता हूँ मैं तुम्हारे निजी पलों में,
तुम्हारे ठहाकों, तुम्हारे आंसूओं में।
बस जानने के लिए तुम्हारी संवेदनाओं का स्वरुप।
मेरे लिए तुम एक सैंपल हो,
इस विस्तृत देश की संवेदनाओं का प्रतिनिधि..
बस और कुछ नहीं।

मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता,
कि तुम्हारी निजता खतरे में है,
कि तुम में से कई चीख रहे हैं,
इन अनावश्यक सपनों के बोझ तले।
मैं इत्मीनान से बोर्डरूम में बैठ, तुम्हारी संवेदनाओं से खेलता हूँ।
उन्हें अलग अलग खेमों में रख कर,
ढूंढता हूँ, डराने के नए नए तरीके।

कई दफे हार जाता हूँ,
तुम जब मानते नहीं बातों को,
जब तुम्हें डर नहीं लगता,
जब तुम सपने नहीं देखते।

ऐसे दिनों में कोसता हूँ तुम्हे, तुम्हारी संवेदनहीनता पर।

पर ऐसे दिनों के लिए,
ताकीद कर रखा है ऑफिस बॉय को,
कमरे से आईना हटा ले।

आईना शर्मिंदा करता है मुझे,
उन दिनों मेरे चेहरे पे,
तुम्हारी बेचारगी उभर आती है।

मंगलवार, 23 जुलाई 2013

Ghazal

सुखन* पे सख्त कुछ ऐसे, मुआ मौसम गुज़रता है,
किताबें हैं छुपी बैठी, फलक सारा टपकता है।

तसल्ली होती है , डर देख के अब्बू की आँखों में,
कोई तो है जो मुझको , आज भी बच्चा समझता है।

तरक्की की दलीलें बेवजह हैं, जब तलक कोई,
किसी फुटपाथ पे बस दो निवाले को तरसता है।

तुझे आहों से मेरी, अब कभी तकलीफ ना होगी,
कि तेरा गम बिला आवाज़, अब दिल में सिसकता है।

भला इन वाह के, इन दाद के शेरों से क्या होगा,
मुकम्मल तब ग़ज़ल है, आह जब दिल में पसरता है।

*poem

मंगलवार, 9 जुलाई 2013

Bikhre sher

मुझे अब भी हैं मिलते, चादरों पे अश्क के धब्बे,
तुम्हारे ज़ख्म की रंगत, अभी भी सब्ज़* दिखती है।

*हरी (green)

शुक्रवार, 5 जुलाई 2013

Ghazal

किसी भूली कहानी का, कोई किरदार दिखता है,
मेरा क़स्बा मुझे , अब सिर्फ इक बाज़ार दिखता है।

कि जैसे सर के बदले, आईनें हों सबके कन्धों पर,
मुझे हर शख्स मुझसा ही, यहाँ लाचार दिखता है।

यही इक मर्ज़ है उसका ,दवा भी बस यही उसकी,
शहर, चाहत में पैसे की, बहुत बीमार दिखता है।

बचेगी किस तरह मुझमें, किसी मंजिल की अब हसरत,
समंदर के सफ़र में, बस मुझे मंझधार दिखता है।

न कोई रब्त है, ना गम, न कुछ बाकी तमन्नाएँ,
ये शायर शय से सारी, इन दिनों बेज़ार दिखता है।

बुधवार, 3 जुलाई 2013

Ghazal

जिसे देखो मेरी जानिब, निगाहे- सर्द देता है,
नहीं जीने मुझे, ये हसरते-हमदर्द देता है।

ज़माना बदगुमाँ होकर, हुआ है बेतकल्लुफ सा,
वो आँखें डाल कर आँखों में , मुझको दर्द देता है।

भला आवारापन इसके सिवा, अब और क्या देगा,
अबूझे चाह के लम्बे सफ़र की गर्द देता है।

मिरे शायर को है मालूम, सारे रंग-बू यूं तो,
मगर नज्मों को सूरत, जाने क्यूँ वो ज़र्द देता है।

बुधवार, 26 जून 2013

Nostalzia

ख्वाब में कल फिर से दिखे,
मुझे वो सारे लोग।
रोज़ की तरह,
देर तक खटखटाते रहे,
दरवाजा कमरे का।
तंग आकर सोचा,
ख्वाब में ही सही,
दरवाजा खोल तो दूं।

छिट्कनी खोलते ही,
ख़ुशी से,
दोगुना सा
हो गया कमरा।
सारे पुराने लोग
सिमट आये उसमें,
पहले की ही तरह।
अजीब सी
हड़बोंग सी मच गयी,
जाने कितने कंधे
कितने आंसूओं को,
सहेजने लगे।
हँसी आँखों से
बहती रही बदस्तूर, बेमतलब।

किसी ने आते ही
ताश के पत्ते बिखेर दिए
बिस्तर पे,यूहीं... बेवजह।
एक पुराना कंप्यूटर,
कराहता रहा
ब्रायन एडम्स और
गुलाम अली की धुनों पर।
शराब की एक बूँद पे
झूमता रहा
पूरा कमरा देर तक।
कोई कोने में लेट कर,
बड़े जतन से
बनाता रहा अच्छी- बुरी,
तस्वीरें मेरी।
और मैं आईने के अक्स से,
मिलाता रहा तस्वीरों को।

यकायक आईने में,
बदलने लगे तआस्सुरात,
चेहरे के।
मानो ख्वाब में,
दस साल गुज़र गए हों।
सब सहम सा गया,
चेहरों पे सबकी,
पकी दाढ़ियों के
बाल नज़र आने लगे।

बुरा लगा, यूं गुज़रना
वक़्त का,
रूठ कर
आइना तोड़ दिया है।
वक़्त ने
समेट लिए हैं,
तिलिस्म सारे।
छनाके से
ख्वाब भी
टूट गया है अब।

लेकिन सोफे पर
अब भी पड़ी हैं,
कुछ धुंधली,
ब्लैक एंड व्हाइट
तस्वीरें,
कॉलेज की।

शुक्रवार, 21 जून 2013

Bikhre sher

चलो मिल लें कहीं हम, अब किसी बाबत, किसी तरहा,
कि अब तो ख्वाब में भी, शक्लें सारी धुंधली दिखती हैं।

बुधवार, 19 जून 2013

Ghazal

हमेशा कल पे हमने देखी टलती, चाँद सी रोटी,
धुँआई अश्क में बेबस सिसकती, चाँद सी रोटी।

तुम्हारी अलहदा ख्वाहिश, तुम्हारे अलहदा सपने,
हमें तो ख्वाब में भी बस है दिखती, चाँद सी रोटी।

हो झगड़ा तेरा-मेरा, इसका-उसका जिसका-तिसका हो,
ये कैसी आग है फैली, कि जलती चाँद सी रोटी।

शहर में बेचने वाले, बहुत कुछ बेच देते हैं,
यहाँ सबसे है लेकिन, मंहगी बिकती चाँद सी रोटी।

सुबह से शाम तक पीछा करूँ, मैं इक निवाले का,
मगर कमबख्त कब देखें, है थमती चाँद सी रोटी।

बुधवार, 5 जून 2013

Ghazal

गिला क्यूँ हो, जो हमदोनों नदी के दो किनारे हैं,
हमें इन पानियों का पुल, हमेशा जोड़े रखता है।

अगर मिल जाए सब, इन्सां बिला मकसद न हो जाए,
इसी से, कद से छोटी चादरें वो ओढ़े रखता है।

न जाने किस वजह से, तू खफा मुझसे लगे रहने,
यही डर बुत की जानिब, मुझ को अब तक मोड़े रखता है।

ये तय है आँधियों में, कश्ती उसकी डूब जाएगी,
वो जो खुद की बजाए, सब खुदा पे छोड़े रखता है।

सोमवार, 3 जून 2013

Bikhre sher

यही इक बात तेरी, मुझको मुझसे जोड़े रखती है,
कि मैं टूटा अगर, तो तुम भी मुझ संग टूट जाओगे।

सोमवार, 27 मई 2013

Ghazal

इश्क मेरे लिए ये क्या लाया,
इक खलिश, मुफलिसी, कज़ा लाया।

सारी यादें, सभी पुराने ख़त
उफ़ ये तूफ़ान क्या उठा लाया।

दाम अच्छे मुझे भी मिल जाते,
मैं अना अपनी, पर बचा लाया।

है फ़रक कहने और करने में,
ये नया रोग क्या लगा लाया।

वक़्त है रुखसती का, चलता हूँ,
फिर मिलेंगे अगर खुदा लाया।

खलिश- pang
मुफलिसी- poverty
कज़ा- death
अना- ego

Ghazal

दुशाले बादलों के जब भी, हैं ओढ़े सितारों ने,
जलेगा किस तरह चूल्हा, यही सोचा हजारों ने।

ये माना खोलतीं हैं, ज़ेहन की खिड़की- ओ- दरवाजे,
बहुत कम लोग हैं, जिनको है बख्शी छत अशआरों ने।

कनारे जिनकी चाहत में, समंदर पार की हमने,
गज़ब की बात है, हमको डुबोया उन कनारों ने।

मैं सज़दे सूखे गुल के करता हूँ, जबसे कहा उसने,
वो वापस आएगा, गरचे बुलाया फिर बहारों ने।

बिकाऊ मैं नहीं, जब बात ये जानी उसी दिन से,
झुका ली हार के नज़रें , मेरे आगे बजारों ने।

सोमवार, 6 मई 2013

Bikhre sher

----शहर----
1
शहद इक नाम का जिसके, लब-ए-नम्कीं पे चिपका है,
शहर क्या वो भी तुझको, इस कदर ही याद करता है?
2
शहर की टूटी सड़कें, भीड़, गड्ढ़े, चाय के खोखे,
कभी सोचा न था, इनपे भी हमको प्यार आएगा।
3
बड़ी थी आरज़ू मुझको, वो सीने से लगा लेगा,
शहर ने देखा है लेकिन, बहुत अन्जान नज़रों से।
4
मची है वैसी ही भगदड़, कि जैसे पहले होती थी,
मुझे लगता नहीं, जाने से मेरे फर्क आया है।

मंगलवार, 30 अप्रैल 2013

Bikhre sher

तलाशें अब तलक अपनी जड़ें, मुझमें मेरे अपने,
वो शायद भूल बैठे हैं, मैं अब भी बम्बई में हूँ।

शनिवार, 27 अप्रैल 2013

Bikhre sher

मुझे लगता है अच्छा, शादियों में रात भर जगना,
मैं देखूँ जुड़ते रिश्ते, तो मेरी आँखें नहीं थकतीं।

मंगलवार, 23 अप्रैल 2013

Bikhre sher

जो होना सच है उनका, अब तलक तो आ भी जाते वो,
हरेक पत्थर के आगे, हमने अपना सर झुकाया है।

सोमवार, 22 अप्रैल 2013

Bikhre sher

नहीं पहचानता हूँ, कौन सा गम है मेरे आगे,
नज़र में अश्क हों, तो सब यहाँ धुंधला सा दिखता है।

गुरुवार, 18 अप्रैल 2013

Bikhre sher

मैं जोडूँ सौ दफे, पर सौ दफे फिर टूट जाते हैं,
ये मेरे हौसले, सारे मरासिम*, सब तमन्नाएँ।

* रिश्ते

Bikhre sher

नहीं दिखता है मेरी राह में, कोई मील का पत्थर,
मगर मालूम है मुझको, कि मंजिल दूर है मेरी।

Bikhre sher

उन्होंने कह के पुरसिस* का,कुरेदा ज़ख्म को कुछ यूँ,
मेरे इन आँसूओं को, और खारा कर गए हैं वो।

* हाल पूछना

Bikhre sher

भला कब तक करेंगे गुफ्तगू,इन बुतकदों* में हम,
यहाँ दम घुट रहा है, उठ के कमरे तक चले आओ।

* मंदिरों

सोमवार, 15 अप्रैल 2013

Bikhre sher

कटी है जिस तरह, उससे कोई शिकवा नहीं लेकिन,
कसक गुमनाम रहने की, जो थी सो अब भी कायम है।

Bikhre sher

दुआ के साथ पैसे थोड़े, अबके छोड़ आया हूँ,
सुना बेदाम चीज़ें, तुझ तलक अब जा नहीं पातीं।

बुधवार, 10 अप्रैल 2013

Bikhre sher

दुआएं भेज दूँ लेकिन, कहाँ तुम तक वो पहुचेंगी,
खुदाओं में हमारे और तुम्हारे,अब भी झगड़ा है।

मंगलवार, 9 अप्रैल 2013

Bikhre sher

हैं दो ही सूरतें जिनमें कोई दीवाना होता है,
यकायक प्यार में हो, या मुसलसल प्यार से खारिज।
* मुसलसल- लगातार

बुधवार, 3 अप्रैल 2013

Ghazal

न जानूँ ख्वाब है कोई, इबारत या सनम की है,
कभी ऐसा भी लगता है, शरारत ये कलम की है।

वही है आरज़ू अब भी, जुनूँ वैसा ही पाने का,
नहीं टूटा हूँ, कोशिश खैर तूने दम-ब-दम की है।

बहुत आसान है कहना, वजह जाहिर न हो जब भी,
भुगतना होगा ही तुझको, ये गलती उस जनम की है।

बड़ा ही दोगला हूँ, अर्जियां खारिज जो हो जाएँ,
बुतों को देख कहता हूँ, ये सूरत ही वहम की है।

दफ़न हैं फाइलों में नज़्म मेरे, इक ज़माने से,
बहुत कुछ चाहने ने, चाह मेरी इक भसम की है।

सोमवार, 11 मार्च 2013

Ghazal

ये जो दरमयाँ है हमारे- तुम्हारे,
उसी रब्त से कम हुए फासले हैं।

झुलसते हुए दिन लगें चाँद-रातें,
मुहब्बत के कैसे नए सिलसिले हैं।

है मुश्किल बहुत चाहना पर करें क्या,
अजब सी वो खुद से अहद कर चले हैं।

तुझे सोच कर बेसबब मुस्कुरा दूँ,
वजह सोचने में कई मस-अले हैं।

मैं पढ़ पाऊँ तुझको, तू मुझको समझ ले,
इसी आरजू में कई शब् ढले हैं।

तेरे हाथ को थाम लूँ, दे इजाज़त,
पसारे हुए बाँह मीलों चले हैं।

बुधवार, 27 फ़रवरी 2013

Ghazal

देख लो, ये ज़िन्दगी-ए-आम है,
भूख खौली, बासी ठंडी शाम है।

किसकी खातिर मैं यहाँ रातें जगूँ,
दूर जा बैठा मेरा घनशाम है।

इक शज़र पे मैंने लायी है खिज़ां,
सर पे मेरे ये नया इलज़ाम है।

तर्क-ए-उल्फत सोच कर रोये मगर,
अब यहाँ आराम ही आराम है।

मुड़ न पाओगे, जो उस जानिब गए,
बच के चलना, राह-ए- सच बदनाम है।

शौक से जलते नहीं चूल्हे कभी,
शायरी इक भूलता सा नाम है।

बुतकदों में ढूंढता हूँ फिर तुझे,
फिर मुझे तुझसे पड़ा कुछ काम है।

रविवार, 3 फ़रवरी 2013

Ghazal

इसी को सोच कर आँखों से कुछ आँसू मचल निकले,
जिन्हें था जिन्दगी समझा, वो जीने का शगल निकले।

जो बिखरी सीपियाँ हैं, रेत पे साहिल की, माजी के,
उन्हीं में ढूंढ लो शायद, कहीं मेरी ग़ज़ल निकले।

कदम थे साथ रक्खे, उंगलियाँ थामे रहे मेरी,
मगर जब लडखडाया मैं, तो छोड़ा, और संभल निकले।

जो तेरी आरिजों पे हैं, मेरे आंसू नहीं लगते,
ये ग़म साझा नहीं जिससे, तेरी आँखें सजल निकले।

खुदी से हार कर खुद मैं, तेरे क़दमों में आया हूँ,
तू ही दे मशविरा कोई, कहीं रस्ता सरल निकले।

बुधवार, 23 जनवरी 2013

Bikhre sher

बहुत कुछ धुल गया है, मुफलिसी की बारिशों में पर,
हथेली से हैं चिपकी, अब भी बेजाँ सी तमन्नाएँ.

रविवार, 13 जनवरी 2013

Ghazal

बनूँ मैं तुझसा किस तरहा, अलग सा अब ज़माना है,
तुझे दुनिया की परवा थी, मुझे बस घर बचाना है।

कोई ऐसा मिले जो आज भी समझे तेरी बातें,
जिसे पूछूँ वो कहता है, अभी तक तू दिवाना है।

बहुत रोका है सूरज को, हरेक दिन शाम होने तक,
मगर उसको भी शायद, दिन ढले ही घर को जाना है।

सफ़र में धुप है तीखी, सबर रखना बहुत मुश्किल,
अभी गुजरी है दो-पहरी, ये पूरा दिन बिताना है।

कयासें सच सी हैं लगती, है गिरना तयशुदा मेरा,
बचे हैं होश लेकिन सामने, सारा ज़माना है।

रहा है तू नहीं गाफिल मेरे हालात से हमदम,
मगर फिर भी है सुनना तुझसे कुछ, तुझको सुनाना है।

बड़ी बेबस सी राहें हैं, जो मंजिल तक नहीं जाती,
इन्ही पर चलना है हमको, सफ़र यूं ही बिताना है।