शुक्रवार, 28 फ़रवरी 2014

Ghazal

खैर लाजिम है, हर इक बूँद का सहमा होना,
मिलके सागर से है, बेमानी सा दरिया होना।

भूख जैसी नहीं दुनिया में कोई चीज़ लगे,
हाए, हर तीसरे दिन का मेरे रोजा होना।

ख्वाब था, ख्वाब सी गुजरेगी तेरे साथ मगर,
जिन्दगी, रास कब आया तुझे सपना होना।

है मेरी जीस्त पे, यूँ सैकड़ों लोगों का असर,
पर बनाये मुझे मुझसा, मेरा मुझसा होना।

कितना भी जोड़ लूँ, रुकता नहीं है कुछ भी यहाँ,
उफ़ ये बरसात में, बरसात का दरिया होना।

मेरे अपने मुझे, अब देख के कतराते हैं,
जुर्म सा हो गया, इस मुल्क में क़स्बा होना।

सोमवार, 10 फ़रवरी 2014

इक बसंत मुझपे उधार है

अपनी पिछली भूल- वूल का,
सूखी शाखें, कुचले फूल का,
और मेरी अहदे-फ़िज़ूल का,
इक बसंत मुझ पे उधार है।

दिल में जलते अमलतास का,
डरते सपने, सहमी प्यास का,
नाई, मोची, संग-तरास का,
इक बसंत मुझ पे उधार है।

टूटे बिखरे ऐतबार का,
अपनी नज़रे-शर्मसार का,
और तुम्हारे इंतज़ार का,
इक बसंत मुझ पे उधार है।

मौसम के इस रंग-राग का,
मन में छाये इस विराग का,
और प्रिये तेरे सुहाग का,
इक बसंत मुझ पे उधार है।

बुधवार, 5 फ़रवरी 2014

Ghazal

ख़यालों से मेरे तल्खी हटा दो,
कलम से या मेरी स्याही हटा दो।

यहाँ अहसास कबके मर चुके हैं,
नए सपनों की सब अर्जी हटा दो।

परे दीवार के जब है अँधेरा,
तो इस दीवार से खिड़की हटा दो।

मैं ख्वाबों पर तभी लिख पाउँगा जब,
मेरे ख्वाबों से तुम रोटी हटा दो।

भला माज़ी पे कबतक सर धुनोगे,
दिलों से बात सब पिछली हटा दो।

मगर मुमकिन है कुछ भी कर गुज़रना,
जेहन पे गर घिरी बदली हटा दो।

Ghazal

अना की कब्र पर जबसे, गुलों को बो चुके हैं हम,
हमें लगने लगा है, फिर से जिंदा हो चुके हैं हम।

उगेंगे कल नए पौधे, यकीं कुछ यूँ हुआ हमको,
ज़मीं नम हो गयी है, आज इतना रो चुके हैं हम।

उतारे कोई अब तो, इन रिवाजों के सलीबों को,
छिले कंधे लिए, सदियों से इनको ढो चुके हैं हम।

मेरे सपने अभी तक डर रहे हैं, सुर्ख रंगों से,
हथेली से लहू यूँ तो, कभी का धो चुके हैं हम।

बची है अब कहाँ, मुँह में जुबाँ औ ताब आँखों में,
बहुत पाने की चाहत में, बहुत कुछ खो चुके हैं हम।