सोमवार, 10 अक्तूबर 2011

जगजीत के लिए..

जिसने पहले- पहल ग़ालिब से मिलाया था मुझे,
तपती दुपहरी में देस का चाँद दिखाया था मुझे,
वो कि जिसने मुझे रातों को जगाये रक्खा,
पौ फटे रोज़, फिर जिसने सुलाया था मुझे,

हरेक नज़्म थी ऐसी, कि इबादत हो कोई,
किसी फकीर के होठों पे शिकायत हो कोई,
वो तो जिस राह से गुजरा, वहीँ पे खेमे लगे,
यूँ लगा, शख्स नहीं जैसे बगावत हो कोई.

वो जो हरदिल-अजीज़ था,मेरा था राहनुमा,
सुना है आज वो शख्स मुझे छोड़ गया.

जगजीत के लिए (जो अब भी यादों में है)

रविवार, 9 अक्तूबर 2011

आमीन

बहुत दिनों बाद आज मिला जिससे, वो अज़ीज़ था मेरा.
कई साल साथ गुजारे थे हमने.
कभी नुसरत को सुना था, कभी खुसरो की दुहाई दी थी.

हर वक़्त आँखें चमकती थी उसकी, एक विश्वास से.
एक जोश निहा था उसकी बातों में, हर वक़्त.
बेपरवाह ज़माने से इतना, कि "जय माता दी" के शोर में भी,
"अल्ला हू" की तान जोड़ दे.
और शराबखानों में ऐलान कर दे, " आज व्रत है मेरा, माफ़ करना".

पर आज जब वो मिला, तो परेशान था,
हार कर खुद से, नज़रें चुराता रहा.
बहुत कहा मैंने -
"आज की रात रूक जा, मैं सहेजूँगा तेरे ज़ख्म.
मेरे कितने दर्द संभाले हैं तूने, आज क़र्ज़ उतार लेने दे."

आँखों की नमी छुपाता हुआ, बोल पड़ा वो -
" दोस्त जाने दे अब, बहुत देर हो चुकी है."

वो वादा कर के गया है, फिर मिलूँगा,
जब हालात सुधर जायेंगे.

जाने किस डर से, दुआ में उठ गए मेरे हाथ,
और कांपते लफ़्ज़ों में, बेसाख्ता मुँह से निकल पड़ा मेरे.
आमीन.....

शुक्रवार, 7 अक्तूबर 2011

जुड़वें

मेरी सोच और वो, जुड़वें हैं दोनों.
शायद मिनटों का ही फासला होगा हमारे बीच.
और राब्ता इतना गहरा, कि एक पल भी दूर नहीं रह पाते हम.
कभी एक दिन के लिए बिछड़ जाऊं, तो ढूंढ ही लेता है मुझे.

राह चलते कभी तपाक से गले लग, कहता है "पहचाना?".
मैं मुस्कुराकर थाम लेता हूँ हाथ उसका, और चल पड़ता हूँ आगे सफ़र पे.

अब तो यकीं हो चला है मुझे, कोई और साथ हो न हो,
मेरी सोच कि हाथ थामे, हमेशा चलेगा, मेरा दर्द...

गुफ्तगू

मैं पूछता ही रहा उससे :
" किस बात का गम है तुझे,
क्यूँ इस कदर नाराज़ है, सारे ज़हां से,
तेरी हर नज़्म क्यूँ डूबी हुई है, दर्द की चासनी में."

वो हर बार मुस्कुराकर कहता,
कुछ नहीं सब ठीक ही तो है.

पर आज जाने क्या हुआ,
अनमने ढंग से वो बोल पड़ा:
"क्या कर पाओगे तुम मेरी खातिर?
जब भी कोशिशें की मैंने नज़्म लिखने की, चाहत भरी,
हर्फ़ फीके पड़ गए.
मानो किसी शरारती बच्चे ने घोल दिया हो दर्द का पानी,
मेरी स्याही में.
अजीब सा रंग है ये, ख़ुशी उभरती ही नहीं
और दर्द गहरा उतरता है, कागज़ पर.
हो सके तो कल ले आना, खुशियों वाली स्याही बाज़ार से.
क्या कर पाओगे इतना?"

इतना कह खामोश हो गया वो.
पर मैं तब से बैठा हूँ, गुमसुम सा,
लिए आईने को गोद में...

बच्चे कुछ जल्दी बड़े हो गए

आजिज़ हो तुम आज इन सवालों से,
क्या नया किया उसने?
क्या आज उसने मेरा नाम लेकर पुकारा मुझे?
क्या आज उसके कदम बढ़ सके खुद-ब-खुद?

इन सवालों पर झुंझलाकर कहती हो कि,
ये सब वक़्त के साथ ही होगा,
अभी बहुत छोटा है हमारा बच्चा.

पर मैं बेताब सा इस इंतज़ार में हूँ,
कि कब वो बड़ा हो और थाम ले,
मेरे सपनो कि ऊँगलियाँ.

इस सोच से कभी-कभी डर भी जाता हूँ,
क्या पता कि सपनो के साथ वो इतना आगे न चला जाये
कि हम सब धुंधले से दिखें उसे.
मेरी तरह वो भी बस हफ्ते के १० मिनट दे पाए घर को.

डरता हूँ कहीं किसी सूने से घर में बैठे हम दोनों,
खाली आँखों से ये सवाल ना करें,
" तुम्हे नहीं लगता कि बच्चे कुछ जल्दी बड़े हो गए"...

वो हमारी दोस्ती की शर्त भी ठुकरा गए

जाते-जाते पन्नों पर, कुछ हर्फ़-ए-नम बिखरा गए,
कुछ किया ऐसा कि गीली जीस्त वो सुलगा गए.

मेरे सर को सजदों के रिश्ते, थे गुज़रे नागवार,
वो हमारी दोस्ती की शर्त भी ठुकरा गए.

एक कतरे की कदर जब, हम ना कर पाए कभी,
यूँ किया कि दरिया में रख, प्यास को तरसा गए.

"इस इबादत से भला, अब तक मिला क्या मोहतरम",
पूछा तो अब्बू ने बस, सदका किया, मुस्का गए.

जीनत हो दुश्मन की भी, पर चौक पे अच्छी नहीं,
देख कर रस्म-ए- अदावत, हम बहुत शरमा गए.

दुआओं का मुझतक असर नहीं आता

वो मेरे साथ है फिर क्यूँ नज़र नहीं आता,
बात में उसकी कभी मेरा जिकर नहीं आता.

दुआएं माँ की हर वक़्त मेरे नाम रही,
मगर दुआओं का मुझतक असर नहीं आता.

मैं आबलापा हूँ, है जलता हुआ सफ़र मेरा,
मेरी तलाश में एक भी शजर भी नहीं आता.

वही है चेहरा, वही दर्द उसकी आँखों में.
मगर ये अक्स मेरा, मुझसा नज़र नहीं आता.

हूँ उसकी राह में पलकें बिछाए मैं कबसे,
है इतना इल्म उसे, फिर भी इधर नहीं आता.