शुक्रवार, 7 अक्तूबर 2011

गुफ्तगू

मैं पूछता ही रहा उससे :
" किस बात का गम है तुझे,
क्यूँ इस कदर नाराज़ है, सारे ज़हां से,
तेरी हर नज़्म क्यूँ डूबी हुई है, दर्द की चासनी में."

वो हर बार मुस्कुराकर कहता,
कुछ नहीं सब ठीक ही तो है.

पर आज जाने क्या हुआ,
अनमने ढंग से वो बोल पड़ा:
"क्या कर पाओगे तुम मेरी खातिर?
जब भी कोशिशें की मैंने नज़्म लिखने की, चाहत भरी,
हर्फ़ फीके पड़ गए.
मानो किसी शरारती बच्चे ने घोल दिया हो दर्द का पानी,
मेरी स्याही में.
अजीब सा रंग है ये, ख़ुशी उभरती ही नहीं
और दर्द गहरा उतरता है, कागज़ पर.
हो सके तो कल ले आना, खुशियों वाली स्याही बाज़ार से.
क्या कर पाओगे इतना?"

इतना कह खामोश हो गया वो.
पर मैं तब से बैठा हूँ, गुमसुम सा,
लिए आईने को गोद में...

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