शुक्रवार, 30 अप्रैल 2010

उजाले का कोई जिक्र नहीं

धुंधलाती शाम, गहराते अँधेरे और बुझती आशाओं के बीच,
दुआ की मैंने,
"ले चलो मुझे अँधेरे से उजाले की ओर"
पर तुम..तुमने कब किसकी सुनी है.

दुआ का ये अमल सालों करता रहा मैं,
फिर एक दिन घबरा कर पूछ बैठा..
क्या एक कतरा भी उजाले का बचाया नहीं तुमने..
जवाब में बस मुस्कुरा दिए तुम.
और मैंने उस मुस्कराहट की लौ से,
जला लिया दिया एक मन का..
यही दिया अब मेरा रास्ता है, यही मेरी मंजिल

अब तो मुस्कुराते रहा करो...
अब तो दुआ में भी उजाले का कोई जिक्र नहीं..