बुधवार, 22 जनवरी 2014

Ghazal

ये माना बिखरे रिश्तों में, भी कुछ बिखरा नहीं लगता,
मकाँ लेकिन अमीरों का, मुझे घर सा नहीं लगता।

मुझे परहेज कब है, महफ़िलों में मिलने-जुलने से,
मगर बेबात पे हँसना, मुझे अच्छा नहीं लगता।

भले कितनी ज़िरह कर लूँ, तेरे होने- न होने पर,
मेरी माँ को तेरा पलड़ा, कभी हल्का नहीं लगता।

न जाने क्यूँ ये कस्बाई, शहर की नींव बुनते हैं,
जो उनको इस कदर, बढ़ता शहर अपना नहीं लगता।

मुझे इतने ज़माने बाद, क्या पहचान पाओगे,
अभी तो अक्स भी मेरा, मुझे मुझसा नहीं लगता।

निखर आई है मेरी दीद, थोड़ी बावुजू होकर,
कि इस भीगी नज़र से, कोई अब धुंधला नहीं लगता।

जो पीछे मुड़ सकूँ तो, बेहतरी की थाह लूँ लेकिन,
यहाँ मसरूफियत है, माजी का मजमा नहीं लगता।

शनिवार, 11 जनवरी 2014

Ghazal

सब्ज़ सपने पिरो गयी शायद,
दिल में वो इश्क बो गयी शायद।

हर नज़र देखती है इस जानिब,
कुछ खता मुझसे हो गयी शायद।

भोर काँधे पे मेरी था काजल,
रात भर फिर वो रो गयी शायद।

भूल बैठा हूँ सूरते-साकी,
तिश्नगी दूर हो गयी शायद।

अब तो राहें हैं, सिर्फ राहें हैं,
एक मंजिल थी, खो गयी शायद।

बुधवार, 8 जनवरी 2014

तीसरे जनमदिन पर

शुरू के तीन दहाई साल
बस टुकड़ों में ही याद है मुझे।
कोई कोई वाकया, कोई कोई लमहा, बस।
कभी किसी साल को कुरेदूँ ,
तो लेदे कर घंटे - दो घंटे की यादें निकलती हैं।
कोई याद दिलाए तो यूँ सुनाता हूँ, जैसे बरसों पहले पढ़ी हुई नॉविल के चंद पन्ने सुनाता है कोई, ज़ेहन पर जोर डालकर।

पर हाल के तीन बरस, जब से वो आया है, हर पल साथ चलते हैं मेरे।
आँखें मूँद लूँ तो उसका हर लम्स, हर लफ्ज़ महसूस होता है मुझे।
उसका रूठना- मनाना, जागना- जगाना,
सब याद है मुझे।
आज भी उसके झूठे आंसुओं को सोच लूँ तो हँस देता हूँ,
वैसे ही जैसे कि, उसकी मुस्कुराहटों पर भींग जाती हैं पलकें।

ये कोई ख़ास बात नहीं शायद, हर वालिद ऐसा ही तो महसूस करता है।
खास ये है कि इन तीन सालों ने एक नयी जिंदगी दी है मुझे,
वो ज़िन्दगी जिसके हर लम्हे को मैं जी रहा हूँ, हर लम्हा, लम्हा दर लम्हा।

बुधवार, 1 जनवरी 2014

Ghazal

ये नज़र जाएगी, ये बदन जाएगा,
फिर भी दिल का कहाँ बाँकपन जाएगा।

सजदे में भी रहा चूमता जो जमीं,
किस तरह उसके दिल से वतन जाएगा।

बस इसी डर ने सोने दिया ना मुझे,
बेख़याली में सर से कफ़न जाएगा।

उसमें दिखने लगी हैं वही आदतें,
मुझको डर है, वो मुझसा ही बन जाएगा।

कुछ रूहानी नहीं, कुछ रूमानी नहीं,
कैसे तुझ तक ये मेरा सुखन जाएगा।