बुधवार, 22 जनवरी 2014

Ghazal

ये माना बिखरे रिश्तों में, भी कुछ बिखरा नहीं लगता,
मकाँ लेकिन अमीरों का, मुझे घर सा नहीं लगता।

मुझे परहेज कब है, महफ़िलों में मिलने-जुलने से,
मगर बेबात पे हँसना, मुझे अच्छा नहीं लगता।

भले कितनी ज़िरह कर लूँ, तेरे होने- न होने पर,
मेरी माँ को तेरा पलड़ा, कभी हल्का नहीं लगता।

न जाने क्यूँ ये कस्बाई, शहर की नींव बुनते हैं,
जो उनको इस कदर, बढ़ता शहर अपना नहीं लगता।

मुझे इतने ज़माने बाद, क्या पहचान पाओगे,
अभी तो अक्स भी मेरा, मुझे मुझसा नहीं लगता।

निखर आई है मेरी दीद, थोड़ी बावुजू होकर,
कि इस भीगी नज़र से, कोई अब धुंधला नहीं लगता।

जो पीछे मुड़ सकूँ तो, बेहतरी की थाह लूँ लेकिन,
यहाँ मसरूफियत है, माजी का मजमा नहीं लगता।

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