मंगलवार, 29 मार्च 2011

वो लौट कर आया नहीं

चंद टुकड़े हैं, ये मेरे जीने का सरमाया नहीं,
बीन कर इसको मैं लेकिन, आज पछताया नहीं।

आज उससे मिल लिए, बातें भी की,
पर थी जिसकी आरजू, वो लौट कर आया नहीं।

भूल जा तू उन पलों को, जिंदगी थे जो कभी,
वो तो ये कह कर गया, मैं ऐसा कर पाया नहीं।

एक सूरज ही चमकता रह गया आठों पहर,
शब में भी आँखों पे मेरी, कोई अब साया नहीं

फिर से भरमाया तुम्हें

इक अधूरी शाम दे कर, फिर से तरसाया तुम्हें,
वस्ल का वादा किया, यूँ फिर से भरमाया तुम्हें।

तू अगरचे साथ होता, जीत लेता मैं जहाँ,
अपनी नाकामी छुपा ली, बाकी बतलाया तुम्हें।

जिंदगी वो क्या कि जिसमे दूसरे न हों शरीक,

खुद ही जो समझा नहीं मैं, वो ही समझाया तुम्हें।


अपने हिस्से कि ख़ुशी से एक छत तामीर की,

धुप हो गम कि तो शायद दे सकूँ साया तुम्हें।

शनिवार, 26 मार्च 2011

डर उजाले से

देखता रहता है टकटकी बांधे, रौशनी को देर तक,
जाने क्या सोच कर मुस्कुराता है, झेंप जाता है।
पलकें खोल कर बार बार देखता है, मुतमईन हो जाता है।


मेरे बच्चे ने अभी उजालों से डरना नहीं सीखा।

दो पहलू

मायूसी:
दिन गया आवारगी में, शब को नाकारा फिरा,
जब भी खुद को देख पाया, अपनी नज़रों से गिरा।

तिश्नगी अब न रही, ता-उम्र जो हमराह थी,
खो गया वो ख्वाब भी, जब खुद ही वादे से फिरा।

उम्मीद:
एक कतरा प्यार का, एक लफ्ज़ कि कारीगरी,
इतने से ही जोड़ लूं मैं, टूटे रिश्तों का सिरा।

मैंने दामन इश्क का छोड़ा नहीं, उस वक़्त भी,
आँखें थी जलती हुई जब, दिल था नफरत से घिरा।

बेबसी

चन्द सिक्के फटी जेब में लिए , बराए- उम्मीद मुस्कुराता हूँ मै।
रोज अपने संगे दिल को अश्कों से पिघलाता हूँ मैं।

दौलते इश्क कब का खो भी चुका, रो भी चुका,
जीतने नफरत जहाँ की, हर रोज चला जाता हूँ मैं।

देखना चाहूँ जो खुद को, आईना मुँह फेर ले,
क़त्ल कर के खुद अना का, खुद ही शरमाता हूँ मैं।

तुम भी मानोगे, जो कहता हूँ मैं अक्सर रात-दिन,
इस भरी महफ़िल की तन्हाई से घबराता हूँ मैं।



मंगलवार, 22 मार्च 2011

ये चलो अच्छा हुआ

ग़मज़दा पलकें न देखी, ये चलो अच्छा हुआ।
पूछ बैठे हाल क्या है, ये चलो अच्छा हुआ।

तुम अगर कुछ फूल लाते, तो नयी क्या बात थी,
सारे चुनकर खार लाये, ये चलो अच्छा हुआ।

हँस के जो दो बात कर ली, भींग सी पलकें गयी,
तल्खिये- अंदाज़ भूले, ये चलो अच्छा हुआ।

तेरी महफ़िल में न आते, मुतमईन से रहते हम,
बेरुखी ने जान भर दी, ये चलो अच्छा हुआ।

अच्छा नहीं लगता

तेरा नूरानी चेहरा बेनकाब, अच्छा नहीं लगता,
तेरा ये खुश्क अंदाज़े- जवाब अच्छा नहीं लगता।

शहर में आये हो, कुछ अपना अंदाज़ तो बदलो,
भीड़ झूठों कि हो, और सच में जवाब... अच्छा नहीं लगता।

मुझे आईने भी अब कहाँ पहचान पाते हैं ,
रोज़ चेहरे पर, नया इक नकाब, अच्छा नहीं लगता।

सोचा मांग लूं, वो जिसको हम कब से तरसते हैं,
ये अपने बीच का कौमी हिजाब, अच्छा नहीं लगता।

जो दिन में बात करता है, कोई भूखा न सो जाये,
उसी कि शामों में जामे- शराब , अच्छा नहीं लगता।

बुधवार, 9 मार्च 2011

बहुत याद आया

जब भी कभी आइना मुस्कुराया , मुझे मेरा क़स्बा बहुत याद आया।

कभी पहले, जब गिरता था मैं फिसलकर ,
बहुत लोग कहते थे चलना संभलकर।
अकेले में जब मैं कभी लडखडाया,
मुझे मेरा क़स्बा बहुत याद आया ।

वहां सब थे अपने , थे मीठे ही सपने।
था सुनता मैं लोरी, जो लगे पलकें झुकने।
यहाँ स्याह दिन है , है सर पे न साया।
मुझे मेरा क़स्बा बहुत याद आया.