शुक्रवार, 29 अप्रैल 2011

त्रिवेणी (inspired by Gulzar)

१।
पौ फटे से टांक लेता हूँ, अदद इक दिन,
शाम तक फिर तार-तार हो जाती है चादर।

उलझना होगा कल सुबह, मुझे फिर सूई- धागों से।
२।
याद नहीं, कभी गुफ्तगू हुई कि नहीं,
जब भी मिले हम राह में, रस्मन मुस्कुराये हैं।

आइनों से गहरी यारी की नहीं जाती।
३।
है सोचा जब, कि लिखूं नज़्म फिर से इक नयी कोई,
हर दफा देखा है मुड़कर चाँद की जानिब।

गोया चाँद है, बस हामिला1 मेरे ख्यालों से।
1. pregnant


सोमवार, 25 अप्रैल 2011

खुद से चुप्पी की आस रहती है

शब1 तलाशती है अँधेरा कोना, दिन में साए की आस रहती है,
क्यूँ उजालों से भर गया है दिल, क्यूँ अंधेरों की प्यास रहती है।

खोया क्या आज सोचता हूँ मैं, जो भी थी कल की नेमतें2, हैं बची,
जाने क्यूँ फिर उदास रहता हूँ, जाने किसकी तलाश रहती है।

सुबह निकला हूँ रूह से छुपकर, शाम ये सर पे चढ़ के बोलेगा,
एक उम्मीद अमन की है अब भी, खुद से चुप्पी की आस रहती है।

1. Night
2. Gifts

शुक्रवार, 22 अप्रैल 2011

एक मुद्दत से हूँ बैठा कि कोई बात चले

एक मुद्दत से हूँ बैठा कि कोई बात चले।

तुम पूछ लो कुछ, जिसमे कोई सवाल ना हो,
मैं दूं जवाब, जो दरअसल जवाब ना हो।

तेरे लफ़्ज़ों से ना तल्खी1 की महक आये मुझे,
जो दिखे मुझको वो ताअस्सुर2 भी खुशगवार रहे।

ना हो वो रोज़ की बातें कि जैसे ख़बरें हों,
कहूं मैं कुछ, तो न लगे कि अभी झगडे हों।

हो गर जिरह3 भी तो बातों के एक से सिरे निकलें,
लफ्ज़ की राहों में गुल ही हों, कांटें न जड़े निकलें।

सिक्के में, जिंदगी के, पहलू मिले तो एक मिले,
एक मुद्दत से हूँ बैठा कि कोई बात चले।



1. bitterness
2. expressions
3. argument

शनिवार, 16 अप्रैल 2011

जिंदगी इन दिनों कुछ बेतरतीब सी है..

जिंदगी इन दिनों कुछ बेतरतीब सी है।

कुछ इस तरह भटकती हैं इच्छाएं,

जैसे उठता है अभी-अभी बुझे किसी चराग से धुआं

जैसे फैला हो बाढ़ का पानी, दूर तक .... खेतों में।

जैसे बेवजह आवाजें करते हों परिंदे, आधी रात के बाद।
जानता हूँ कि अमरबेल सी लिपटी रहेंगी ये,

तब तक, जब कि छोड़ दूं कोशिशें,


फिर एक दिन सब सहज हो जायेगा,

पर अभी....अभी तो जिंदगी बेतरतीब सी है।

मंगलवार, 12 अप्रैल 2011

आज अरसे बाद

आज अरसे बाद, सोचा कुछ लिखूँ उसके बारे में।
एक पुराना वादा था, शायद पूरा हो जाये।

सोचते- सोचते आधी गुजर चुकी है रात,
इतना कुछ एक नज़्म में कैसे समाएगा भला?
कैसे कह पाऊँगा वो सब, मैं इन चंद शब्दों में,
जो कोई भी कह न पाया, गुजरी कितनी सदियों में।

दिल के सफहों को पलट के कई बार पढ़ चूका हूँ मैं,
हर दफा लगता है, कुछ पन्ने छूट से गए हों।
कुछ अनकहा- अनसुना सा रह गया, जो कहीं दर्ज नहीं,
सोचता हूँ उससे मिल कर पूछ लूँगा।

और वो मेरी उलझनों से बेखबर, मुन्तजिर होगी कि कोई नज़्म पढूं।
हर आहट पे उठ बैठती होगी, कहीं ये नज़्म का उन्वान तो नहीं।

पर क्या करूँ, आज भी शायद वादा पूरा हो न पाया।
टाल कर मैं रह गया, आज भी उन ख्वाहिशों को,
जब सोचा था, लिखूंगा कुछ उसके बारे में,
आज अरसे बाद

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है खुदी की ज़द में ही सारी खुदाई

झुका सजदे में जब भी मैं, ज़मीं से है सदा आयी,
किसी की बन्दगी क्यूँ, है खुदी की ज़द में ही सारी खुदाई।

जिसे कहती रही दुनिया, ना मिलना बेवफा है वो,
उसी ने थामा है अबके, सिखलाई हमें अब आशनाई।

ना जाने हाल क्या हो , जब फ़रिश्ते बन्दगी में हों,
भला राहें दिखाए कौन, हो किसकी रहनुमाई।

रविवार, 3 अप्रैल 2011

जैसे कि बीमार को मिल जाये इक वजहे-करार..

मेरी सज़दाए-जबीं, है तेरे क़दमों पे निसार,
तू ही रौनक मेरे दिन का, तू ही शब का है निखार।

जब सुनी आमद कि तेरी, कुछ तो है ऐसा हुआ,

जैसे कि बीमार को मिल जाये इक वजहे-करार।

मेरे सारे अश्क ले कर, छुप के खुद रोता रहा,

या तो मैं हूँ नासमझ, या तूने तोडा है करार।


कसमकस है क्या कहूँ, वो मर्ज़ है या चारागर,

वो ही ग़म देता है मुझको, वो ही बनता गमगुसार।

बहुत ही खूँ निकलता है..

सितारे जब कभी टूटे, बहुत तकलीफ होती है,
अगर आँखों में चुभ जाये, बहुत ही खूँ निकलता है।

कभी जब रात भर जागा, शहर की रौशनी में मैं,
सुबह सूरज से पूछा है, भला तू क्यूँ निकलता है।

हूँ तबसे मुन्तजिर, तू छोड़ कर जबसे गया हमको,
मिला जो पूछ बैठूँगा, बोलो भला कोई यूँ निकलता है।

थी जिंदगी कब काम की

हाथ तस्बीहें लिए था, दिल में तड़प पर जाम की,
देखें हो क्या इब्तेदा अब, खुशनुमा इस शाम की।

कोई हमसे पूछ बैठा, क्या है अंदाज़े- सुकून,
हँस के हमने ये कहा, थी जिंदगी कब काम की।

कितनी सदियाँ कट गयी, खुद से खुदी की जंग में,
अब तो रहमत बख्स मौला, दे दो घडी आराम की।