सोमवार, 30 मई 2011

कौन सी शय लायेंगे

जलजला ला के भला, आप भी क्या पाएंगे,
बाढ़ आई, तो घर दोनों ही जानिब के डूब जायेंगे।

जो मुझे छोड़ गए राहे- मुहब्बत में कभी,
नफरतों के दौर में, अब लौट के क्या आयेंगे।

घर में हो फाका तो, उज्र है रमजान में भी,
रोज़ यही फ़िक्र,रोज़ा खोल के क्या खायेंगे।

हमने लगा दी दांव पे अपनी अना भी आज,
देखें कि अबके जीत के हम कौन सी शय लायेंगे.

शनिवार, 28 मई 2011

बुकमार्क

तुमने जो दिए, वो थोड़े ग़म उठा कर महफूज़ रख लिए हैं।
यहीं सामने की मेज पर, अपनी नज्मों वाली डायरी में।

जब भी पलटता हूँ, वही सफहा खुलता है, ग़मों वाला।
मानो एक बुकमार्क सा बन गया है वो।
छिड़कता हूँ मुस्कुराहटों के पावडर भी पन्नों में,
पर बे-असर है हर कोशिश।

हर दफा वही पन्ने, वही ग़म, वही ख़याल आते हैं।

शायद कविताओं का कोई पुराना राब्ता है ग़मों से।

गुरुवार, 26 मई 2011

आज तक लहरों के संग बहे

है रंज हमको, दर्द में वो तन्हा क्यूँ रहे,
थी फ़िक्र उनको, उनका ग़म क्यूँ दूसरा सहे।

इतना तो जिंदगी में सुकूँ भी मिले हमें,
सोये अगर तो जागने की फ़िक्र ना रहे।

दुनिया ने कबके छीन ली, पतवार हाथ से,
हम भी बजिद थे, आज तक लहरों के संग बहे।

हर वक़्त दूसरों के लिए जीना ठीक है,
पर काश दूसरों में कोई आप सा रहे।

बुधवार, 25 मई 2011

ग़म सहेजना इतना आसान नहीं

कितने अजीब हैं ये बादल भी,
महीनों तक सहेजते रहते हैं ग़मों को,
रात- दिन भटकते हुए, ग़मगीन शक्लें बनाकर।
कभी छुपाते हैं चाँद, सूरज, सय्यारों को,
कभी खुद ही छुप जाते हैं।

और जब पलकों तक भर आता है गम,
तो बस उड़ेल देते हैं,
भीग जाती है जमीं सर से पैरों तक।

बहुत समझाया कि दूसरों के गम सहेजना इतना आसान नहीं।

मंगलवार, 24 मई 2011

सूखे अधूरे नज़्म

कुछ अधूरे नज़्म मैंने कहीं दर्ज नहीं किये,
आज भी मन के किसी कोने में पड़े-पड़े सूख रहे हैं वो।
सोचता हूँ ऐसी ही किसी ठंडी अँधेरी रात में,
तोड़ कर कुछ सूखी पत्तियां नज्मों की,
एक अलाव जला लूँगा।
बड़े जतन से देर तक फिर फूंकता रहूँगा उसे।
इस उम्मीद से की कहीं इसकी राख से
जन्म ले कोई नयी नज़्म, फिनिक्स की तरह।

इक नए नज़्म की चाहत में,
पुराने सूखे नज्मों की कुर्बानी तो जायज़ ही होगी... है न।

मंगलवार, 10 मई 2011

मौत एक सोच की...

मौत एक सोच की, यक-ब-यक नहीं होती,
कई साल लग जाते हैं, कभी- कभी कई जिंदगियां।

पर आज जाने क्या हुआ,
एक मुंडेर पे खड़ा हुआ, कई दिनों से वो,
अचानक बेआवाज़ गिर गया।

कोई धमाका, कोई खबर तक न हुई,
निज़ामे-जहाँ वैसे का वैसा चलता रहा।
वही शब-ओ-रोज़ की फिकर, वही दुनिया का कारोबार।

पर सोच औंधा पड़ा है अब भी, फटी आँखों से देखता है मेरी तरफ...
बंद हो जाएँगी ये पलकें भी, बस कुछ पल, कुछ महीने, कुछ साल ही बाकी हैं।

तड़पता रहेगा तब तक बेआवाज़, बेनियाज़ हो कर।
तड़पना ही नसीब है अब... सोच को नहीं थी इज़ाज़त ख़ुदकुशी की।

तड़पना होगा, क्यूंकि ...
सोच की मौत होती नहीं यक-ब-यक......

रविवार, 8 मई 2011

बेवज़ह

क्यूँ मुंडेरों पर परिंदे, हैं मचलते बेवज़ह,
पर क़तर डाले हैं फिर भी, कोशिशें ये...बेवज़ह।

अपनी दूरी का सबब भी मैं ही था माना, मगर,
अब भी नज़रें ढूंढती हैं, उसको ही क्यूँ बेवज़ह।

शब जो मैंने चाँद देखा, कुछ था धुंधला-धुंधला सा,
जाने फिर क्या याद आया, पुर-नम हैं आँखें बेवज़ह।

'फिर मिलेंगे' कह गया वो, छू के पेशानी मेरी,
जब है वादा वस्ल का तो, हिज्र का ग़म बेवज़ह।

तेरी रातें, तेरे सपने, तेरे सारे दर्द-ओ-ग़म,
जब हैं सारी बातें तेरी, 'हम' का चर्चा बेवज़ह।

अपनी बीनाई लुटाकर, खुश बहुत हूँ आज-कल,
जब शहर भर है अँधेरा, फिर देखना क्या बेवज़ह।

शनिवार, 7 मई 2011

फसलें अश्क की...

दिन के हिस्से से चुराकर, कुछ अश्क अपने बो गए,
शाम को फिर फसलें काटी, रात भर हम रो गए।

इस शहर की नीव में, कुछ लाश हैं औंधे पड़े,
मकबरा था एक का, कई लोग कुर्बां हो गए।

कुछ तो हो अब रौशनी, कोई सहर तो आये भी,
रातों की स्याही रात भर, अश्कों से अपनी धो गए।

थी तमन्ना ये कि मंजिल पे पहुँच, सुस्ता भी लें,
है कठिन ये रहगुज़र, हम रास्ते में खो गए।

सोमवार, 2 मई 2011

डर

है अवचेतन में कोई,
शौर्य है, साहस भी है जिसमे।
है निर्भीक वो,
बल भी है, बल का ज्ञान भी उसमे।

ये सब कहने की बातें हैं,
मैं अन्दर तक डरा सा हूँ।