मंगलवार, 30 जुलाई 2013

एक मार्केटिंग मैनेजर की आत्मव्यथा..

मैं सपने बेचता हूँ।
आज के, कल के,
और कभी कभी तो बरसों बाद के भी।

इन सपनों की ज़रुरत है तुम्हें।
इसका अहसास मैंने दिलाया है,
तुम्हारे जेहन में घुसकर,
तुम्हारे डर को कुरेदकर।

मैं और मुझ जैसे सैकड़ों लोग,
झांकते हैं,
तुम्हारे गुसलखानों में,
तुम्हारी रसोई में,
तुम्हारे ख्वाबगाहों में।

मुझे पता है,
कितनी दफा ब्रश करते हो तुम,
कैसे रोता है तुम्हारा बच्चा गीली नैपी में, और
क्यूँ तुम्हारे चेहरे की चमक खो गयी है,
इन धूल भरी गर्म आँधियों में।
मुझे ये भी पता है,
कि तुम्हे नींद नहीं आती आजकल
क्योंकि तुम्हारे पड़ोसी के घर
तुमसे बड़ी कार खड़ी हो गयी है।

झांकता हूँ मैं तुम्हारे निजी पलों में,
तुम्हारे ठहाकों, तुम्हारे आंसूओं में।
बस जानने के लिए तुम्हारी संवेदनाओं का स्वरुप।
मेरे लिए तुम एक सैंपल हो,
इस विस्तृत देश की संवेदनाओं का प्रतिनिधि..
बस और कुछ नहीं।

मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता,
कि तुम्हारी निजता खतरे में है,
कि तुम में से कई चीख रहे हैं,
इन अनावश्यक सपनों के बोझ तले।
मैं इत्मीनान से बोर्डरूम में बैठ, तुम्हारी संवेदनाओं से खेलता हूँ।
उन्हें अलग अलग खेमों में रख कर,
ढूंढता हूँ, डराने के नए नए तरीके।

कई दफे हार जाता हूँ,
तुम जब मानते नहीं बातों को,
जब तुम्हें डर नहीं लगता,
जब तुम सपने नहीं देखते।

ऐसे दिनों में कोसता हूँ तुम्हे, तुम्हारी संवेदनहीनता पर।

पर ऐसे दिनों के लिए,
ताकीद कर रखा है ऑफिस बॉय को,
कमरे से आईना हटा ले।

आईना शर्मिंदा करता है मुझे,
उन दिनों मेरे चेहरे पे,
तुम्हारी बेचारगी उभर आती है।

मंगलवार, 23 जुलाई 2013

Ghazal

सुखन* पे सख्त कुछ ऐसे, मुआ मौसम गुज़रता है,
किताबें हैं छुपी बैठी, फलक सारा टपकता है।

तसल्ली होती है , डर देख के अब्बू की आँखों में,
कोई तो है जो मुझको , आज भी बच्चा समझता है।

तरक्की की दलीलें बेवजह हैं, जब तलक कोई,
किसी फुटपाथ पे बस दो निवाले को तरसता है।

तुझे आहों से मेरी, अब कभी तकलीफ ना होगी,
कि तेरा गम बिला आवाज़, अब दिल में सिसकता है।

भला इन वाह के, इन दाद के शेरों से क्या होगा,
मुकम्मल तब ग़ज़ल है, आह जब दिल में पसरता है।

*poem

मंगलवार, 9 जुलाई 2013

Bikhre sher

मुझे अब भी हैं मिलते, चादरों पे अश्क के धब्बे,
तुम्हारे ज़ख्म की रंगत, अभी भी सब्ज़* दिखती है।

*हरी (green)

शुक्रवार, 5 जुलाई 2013

Ghazal

किसी भूली कहानी का, कोई किरदार दिखता है,
मेरा क़स्बा मुझे , अब सिर्फ इक बाज़ार दिखता है।

कि जैसे सर के बदले, आईनें हों सबके कन्धों पर,
मुझे हर शख्स मुझसा ही, यहाँ लाचार दिखता है।

यही इक मर्ज़ है उसका ,दवा भी बस यही उसकी,
शहर, चाहत में पैसे की, बहुत बीमार दिखता है।

बचेगी किस तरह मुझमें, किसी मंजिल की अब हसरत,
समंदर के सफ़र में, बस मुझे मंझधार दिखता है।

न कोई रब्त है, ना गम, न कुछ बाकी तमन्नाएँ,
ये शायर शय से सारी, इन दिनों बेज़ार दिखता है।

बुधवार, 3 जुलाई 2013

Ghazal

जिसे देखो मेरी जानिब, निगाहे- सर्द देता है,
नहीं जीने मुझे, ये हसरते-हमदर्द देता है।

ज़माना बदगुमाँ होकर, हुआ है बेतकल्लुफ सा,
वो आँखें डाल कर आँखों में , मुझको दर्द देता है।

भला आवारापन इसके सिवा, अब और क्या देगा,
अबूझे चाह के लम्बे सफ़र की गर्द देता है।

मिरे शायर को है मालूम, सारे रंग-बू यूं तो,
मगर नज्मों को सूरत, जाने क्यूँ वो ज़र्द देता है।