शनिवार, 27 अगस्त 2011

बुरा नहीं लगता

गैर के अश्क चुराना, बुरा नहीं लगता,
बेगरज काम में आना, बुरा नहीं लगता.

एक मोड़, जिससे होके हम गुजरे थे कभी,
वहीँ पे लौट के आना, बुरा नहीं लगता.

खफा हो तुम, मगर है बात क्या, मालूम नहीं,
वजह बिन समझे मनाना, बुरा नहीं लगता.

वो एक शख्स जो हमराह है, हमराज भी है,
उसी से राज छुपाना, बुरा नहीं लगता.

अब ना सताए कोई

मुश्किल की इस घड़ी में, हिम्मत बंधाये कोई,
बिछड़ा हूँ, अपने आप से मुझको मिलाये कोई.

दिल का लगाना जब तक हो जाये ना ज़रूरी,
बेहतर यही है तब तक, दिल न लगाये कोई.

इक अरसे से हूँ जागा, बोझल हैं पलकें मेरी,
आये जो नींद, फिर ना मुझको जगाये कोई.

फिर शोखी-ए-तरन्नुम गूंजी है इस फिजा में,
मुश्किल से दिल है संभला, अब ना सताए कोई.

ज़रा सा दम तो लेने दे

संवारूँगा तेरे जुल्फों के ख़म, ज़रा सा दम तो लेने दे,
मैं हँस के छीन लूँगा सारे ग़म, ज़रा सा दम तो लेने दे.

ज़मीं पैरों तले है, ना ही सर पे आसमां कोई,
थकन इस तरह तारी है, ज़रा सा दम तो लेने दे.

ये माना तू बसा है, मेरे दिल की यादगाहों में,
करूँगा गुफ्तगू तुझसे, ज़रा सा दम तो लेने दे.

अभी मक्तल से लौटा हूँ, हैं साँसें खूँ भरी मेरी,
सुबह फिर क़त्ल है होना, ज़रा सा दम तो लेने दे.

मंगलवार, 23 अगस्त 2011

अज्ञान बेचता हूँ

इस मतलबी ज़हां में अहसान बेचता हूँ,
अश्कों के बदले अब भी मुस्कान बेचता हूँ.

जब मिल सकी न मुझको मंजिल मुरादों वाली,
तब राह में खड़े हो, अरमान बेचता हूँ.

सुनता नहीं है कोई, दरबार में किसी की,
बस्ती के शोर में अब, मैं कान बेचता हूँ.

इस भागती सड़क पे इन्सां को कौन पूछे,
मैं तस्बीहों में भरकर भगवान बेचता हूँ.

मैं तंग आ चुका हूँ, है ज्ञान की ये नगरी,
अब आँखें मूँद कर बस अज्ञान बेचता हूँ.

सोमवार, 22 अगस्त 2011

शब को सेंक लेता हूँ

शहर के सर्द रिश्ते..सहर भर, अब देख लेता हूँ,
जला कर आशियाने फिर, मैं शब को सेंक लेता हूँ.

कहीं मैं भूल न जाऊं, कभी औकात ही अपनी,
इसी डर से हमेशा आईने को देख लेता हूँ.

यही थोड़ी सी यादें हैं, मेरी नाकामियों की अब,
बचेगा क्या मेरे दिल में, इन्हें गर फ़ेंक लेता हूँ.

पड़ी थी गैर के क़दमों में, बिल्कुल बेसहारा थी,
अना को तकिये सा लेकर, मैं सर को टेक लेता हूँ.

सोमवार, 15 अगस्त 2011

मेरा महबूब बिना बदले ही मुझको प्यार करता है

मैं जैसा हूँ, वैसा ही मुझे स्वीकार करता है,
मेरा महबूब बिना बदले ही मुझको प्यार करता है.

फ़कत इक हौसला दिल का, भले हों बाजू नाकारा,
बिना पतवार के, मंझधार को भी पार करता है.

तुम्हें मैं आजकल के रहनुमा के रंग क्या बोलूं,
कभी फैलाता है दामन, कभी वो वार करता है.

कभी कंचे, कभी गोले... बहुत सी खुशियाँ लाता था,
पशेमा हूँ कि अब मुझको, वो " जी सरकार" करता है.

मगर वो राम ना आया

नसीहत दुनिया भर की, कोई नुस्खा, काम ना आया,
मरीज-ए- इश्क को कल सुबह भी, आराम ना आया.

कोई तो बात गहरी है, हमारे पैरहन में आज,
यूँही चलकर तेरी महफ़िल में, हम तक जाम ना आया.

भुलावे में हो तुम, अब भी समझते हो...वो आएगा,
बहुत हैवानियत देखी, मगर वो राम ना आया.

बहुत की कोशिशें मैंने, कि मुझ जैसा वो बन जाए,
उसके नाम भी इक शाम की, मगर बदनाम ... ना आया.

सोमवार, 8 अगस्त 2011

इसी शाख़ पे रह जाऊँगा

तेरे बगैर अब जाने मैं क्या कर पाऊँगा,
हरेक सुबह खुद, अपने ही साए से सहम जाऊँगा.

मैं हूँ परछाई इक, इतना भी न चाहो मुझको,
इन अंधेरों में कभी, साथ ना आ पाऊँगा.

गुलों के रंग-ओ-बू, फैलेंगे सरे-बाज़ार कभी,
मैं तो हूँ खार, इसी शाख़ पे रह जाऊँगा.

मसअला सब का यहाँ, एक सा ही है हमदम,
"ख़ुद ही बिखरा हूँ, भला क्या तुझे दे पाऊँगा."

गुज़ारिश जिंदगी से हर घड़ी कि दो घड़ी थम ले,
ना जाने दो घड़ी में, तेरी खातिर, ऐसा क्या कर जाऊँगा.

शनिवार, 6 अगस्त 2011

दोगलापन

एक नज़्म पढ़ी तुमने और राय ज़ाहिर कर दी-
" संवेदनशील हो तुम".
एक तमाचा सा लगा मुझे,
जैसे दोगलापन मेरा,
ज़ाहिर हो गया हो तुम पर.

फिर भी पूछूँगा-
मैं संवेदनशील हूँ अगर,
तो वो है,
जो रौंदता, कुचलता बढ़ता है भीड़ को.
कौन है जो,
अनसुना, अनदेखा कर जाता है, बिलखते चेहरे भूख के.

अगर संवेदनशील हूँ मैं,
तो बताओ कौन है जो,
दूसरों के कन्धों पर पाँव रख, बढ़ता रहा आज तक.
जो तोलता रहा रिश्तों को रुतबे के तराजू में,
जिसने अहमियत ही न दी, गैर के अश्कों को कभी.

हैरान हो...
पूछोगे नहीं कि फिर ऐसी कवितायेँ क्यों,

शायद डरते हो, कहीं ये कह न दूं मैं,
"अब तुम सच्ची कवितायेँ नहीं पढ़ते".

झुलसते दोपहर में रात जड़ दूं

ये सूनापन, ये दिल के खाली सफ़हे,
है सोचा, तेरी यादों से, ये भर दूं.
भुला के वादे सब, पोशीदगी के,
शामे-महफ़िल तुम्हारे नाम कर दूं.

मैं जो हूँ, जैसा भी बना हूँ,
ये सब इनायत है तुम्हारी,
मगर इल्ज़ाम, इन नाकामियों का,
कहो कैसे, तुम्हारे सर ये मढ़ दूं.

तुम्हारी ख्वाहिशें, हैं ख्वाब मेरे,
तुम्हारा ग़म मेरी अश्कों में शामिल,
जरा कह के हमें तू देख हमदम,
झुलसते दोपहर में रात जड़ दूं.

किन्तु पर थमा जीवन

एक किन्तु पर थमा हुआ है, अर्धसत्य सा मेरा जीवन.

प्रत्येक क्षण डरता हूँ अघटित, अकथित संभावनाओं से,

तथापि पथभ्रष्ट नहीं हुआ,

गतिमान हूँ, विपरीत इस भेडचाल के.

अब अज्ञातवास के आखिरी सत्र में,

कहाँ मुड़ सकूंगा, प्रकाशित दिशाओं की ओर.

मित्र, तुम्हे शुभकामनायें मेरी,

चुन लो नया पथ तुम.


पथप्रदर्शक नहीं, अज्ञातवासी हूँ मैं,

ना लक्ष्य का भान है, ना ही चिंता उसकी.

पग भ्रमित हैं मेरे, मेरी ही भांति.

ये थमते नहीं, उस क्षण भी,

जब एक किन्तु पर थमा हो जीवन..

अब कौन सम्भाले मुझे

अब कहाँ पहचान पाते मेरे घरवाले मुझे,

बिखरा हूँ, कोई मुस्कुराकर जोड़ ही डाले मुझे.


टूट कर चाहूँ उसे, ये बात है लाजिम मगर,

डरता हूँ, ये चाह ही, कल तोड़ ना डाले मुझे.


इस शहर में कहकहों की महफ़िलें सजती रही,

देखकर बस रो पड़े, इक घर के कुछ जाले मुझे.


मयकशी पर रोक है, मयखाने सारे बंद हैं,

बेखुदी के हाल में, अब कौन सम्भाले मुझे.


नज़्म हैं बिखरे हुए, है काफिया भी तंग सा,

राह में जब से मिले, कल "चाहने वाले" मुझे.


उसने दामन दर्द से भर के दिया खैरात में,

अब एक कतरा प्यार उसका, मार ना डाले मुझे.