शुक्रवार, 16 जुलाई 2010

बारिशें अब यहाँ भी नहीं होती ...

एक नदी अब नहीं बहती,
पानी का एक भी कतरा अब नहीं दिखता।
दिखते हैं बस मेले में फेकी हुई कुछ चवन्नियां,
कुछ टूटे खिलोने, एक नाव के पटरे
और मेरा खोया बचपन।
नदी कि आखरी सांसों से जब पूछा कि
क्यूँ रुक गयी तुम, क्यूँ सूख सी गयी?
वो हंसी, कहा - क्यूँ खो गया तुम्हारा बचपन?
मैंने सोचा पर कहा नहीं,
कि नहीं मिलता अब वो प्यार मुझे,
बंद सी हो गयी हैं बारिशें आशीर्वादों की
नहीं पोछता कोई मेरे झूठे नाज़ के आंसू।

नदी ने पढ़ ली जैसे मन की बात और कहा,
बारिशें अब यहाँ भी नहीं होती