गुरुवार, 29 सितंबर 2011

चाय की टपरी

आज बहुत बरस बाद फिर उसी राह से गुज़रा,
सब वैसे का वैसा था.
मानो इस गली ने बंद कर रक्खे हों,
अपनी सारी खिड़कियाँ और दरवाज़े.

कोई बदलाव ना आने सके, इसलिए नुक्कड़ पे पान वाले ताऊ ने,
आज भी विविध भारती बजाये रक्खा है.

पर मैं शायद बदल गया, आते ही रौब से कहा,
"एक स्पेशल चाय दे बे, छोटू"
सहम सा गया वो, पूछा तक नहीं उसने तुम्हारे बारे में,

और गर पूछ बैठता भी, तो क्या बताता मैं,
कि अब तुम्हे टपरी की चाय नहीं भाती,
या ये कि अब नहीं पीते उधार की तुम,
ना ही पूछते हो किसी छोटू से ,
" पाँच का पहाड़ा याद हुआ तुझे?"

अपने बदलाव को सोचते हुए उठ खड़ा हुआ ,
दस का नोट टेबल पे रख, अभी निकला ही था,
कि छोटू ने आवाज़ लगायी,
"साहब, आपके छुट्टे"

शर्मिंदा सा, वो टिप उठाये, चला आया था मैं.

इस ख़त के साथ, वही कुछ सिक्के, पिछली यादों के,
भेज रहा हूँ.

इन्हें देख, अगर याद आये गली की तुम्हे,तो आ जाना,
मैं इंतज़ार करूँगा हर शाम,उसी चाय की टपरी पर...

रविवार, 4 सितंबर 2011

प्यास को तरसा गए

जाते-जाते पन्नों पर, कुछ हर्फ़-ए-नम बिखरा गए,
कुछ किया ऐसा कि गीली जीस्त वो सुलगा गए.

मेरे सर को सजदों के रिश्ते, थे गुज़रे नागवार,
वो हमारी दोस्ती की शर्त भी ठुकरा गए.

एक कतरे की कदर जब, हम ना कर पाए कभी,
यूँ किया कि दरिया में रख, प्यास को तरसा गए.

"इस इबादत से भला, अब तक मिला क्या मोहतरम",
पूछा तो अब्बू ने बस सदका किया, मुस्का गए.

जीनत हो दुश्मन की भी, पर चौक पे अच्छी नहीं,
देख कर रस्म-ए- अदावत, हम बहुत शरमा गए.