रविवार, 27 फ़रवरी 2011

मुझे भूलने कि आदत है

तुम कहती हो, मुझे भूलने कि आदत है।
पर कहाँ भूल पाताहूँ मैं तुम्हारा चेहरा, तुम्हारी आँखें।
यहाँ तक कि एक-एक आंसू जो गिरे उन आँखों से,
और शायद उनकी वजहों को भी।

सब याद है मुझे,
तुम्हारा प्यार भी, जुदाई भी।
तुमसे रूठना भी, तुम्हें मनाना भी।

अब भी बहुत याद आ रही हो तुम।
क्या फिर भी कहोगी,
मुझे भूलने की आदत है।

सुबह की शुरुआत

रात की सियाही आँखों में घुलते ही,
चमकती रौशनी में घोड़ों की दौड़ लगी।
एक मीठे सपनों में खोयी हुई नींद को,
ठन्डे स्पर्श के अनुभव ने तोडा।

माँ ने मंदिर से लौटकर कुछ फूल सिरहाने रखते हुए,
हाथों को सर पे फेर दिया,
और सुबह की शुरुआत हुई।

दिल भरा सा रहता है

ना जाने क्यूँ वो बुझा सा रहता है,
शायद हमसे खफा सा रहता है।
जिन पलकों पे रखता वो प्यार के सागर,
उनपे एक कतरा ज़रा सा रहता है।

यूं दरकिनार करे हमको,
शामिल नहीं उनकी फितरत में,
खता कुछ तो होगी,
जो वो दिल भरा सा रहता है।

कशमकश

तुम्हें मालूम हो शायद, मेरा जो हाल है अबके।
तुझे मैं चाहता हूँ और बोल सकता नहीं।

मेरे नसीब में जाने ये चाँद हो कि नहीं,
तेरी रातों में सियाही मैं घोल सकता नहीं।

आज फिर छोड़ गए तुम हमको..

आज फिर एक अधूरी राह मिली,
आज फिर छोड़ गए तुम हमको।
एक दरमियाँ आज भी रहा कायम,
चाँद शब भर मिला उदास हमको।

यूं भी तनहाइयों में क्या करते,
रात भर शाम ही फिर से जी ली है,
और फिर एक झूठे गुस्से से पूछा है,

क्यूँ आज फिर छोड़ गए तुम हमको?

चंद अधूरे शेर


सरे-शाम चाँद कि तलाश हुई, सहर भर रही आफताब की आस।
कम न हुआ आँखों से कतरा भी समंदर का,
लबसे न हुई कम, बूँद भर भी मेरी प्यास।


तेरा इंतज़ार जाने ख़त्म कब हो, ये इम्तिहान जाने ख़त्म कब हो।
जिसे न भूल पाया तू अब भी, उसके दिल का गुमान जाने ख़त्म कब हो।


नींद की बेवफाई तो ज़ाहिर है, ढूंढते हैं अब एक बेखुद सा पल।
पहले तो आते थे नींद में सपने, अब सपनों में भी नहीं मिलता नींद का आँचल।


रात टीसती है नासूर बनके हर घडी अब तो,
दर्द कम हो तो शायद सहर पास लगे।
तुमने पूछा क्या लगी आँख ही नहीं अब तक,
सोचा कह दूं, अभी-अभी तो जगे।


बनकर अजनबी जो वो मिला, कल शब हमसे,
फूल भी चुभने लगे कोई खार बनकर.


बुझ-बुझ के जले हो या, जल-जल के बुझे हो।
रुक रुक के चले हो, या चल-चल के रुके हो।
क्या खुदा है अब भी वहीँ, या छुट्टी पे गया है,
क्या बोझ है दिल पे पड़ा, क्यूँ इस कदर झुके हो।


सुबह अब तक हसीं हुई नहीं, एक उदासी कि गर्द पड़ी है जो, हटाओ
तेरा मुस्कुराना ही काफी है मेरी हंसी के लिए, है गुज़ारिश अब तो जाग जाओ।


जेहन पर छपी तस्वीर धुंधली न पद जाये तेरी,
शायद तभी मांगता हूँ तुझसे तेरी तस्वीरें मैं।
कोई दिन तो तीरे-नज़र चुभे दिल में और सुकून आये,
बस यही सोच, रोज बदलता हूँ तकदीरें मैं।




तेरी यादों के सहारे

कटी फिर से तन्हा शाम, तेरी यादों के सहारे...
रात भर करवटें बदलता रहा।
परेशां देख कर मुझको सितारे सो गए शायद,
सुबह जागा तो सूरज भी धुंधला-धुंधला था।

तेरी यादों कि खुशबू फिर से काँधों पर सजा ली है,
चलो दिन का कुछ तो इन्तेजाम रहा...
काट लेंगे फिर से तन्हा शाम,
तेरी यादों के सहारे।

हम रदीफ़ शेर

१ (विनीत)
मुझे रंज हिज्र से हुआ नहीं, कि दुआ में कोई सवाल हो,
तेरे हिज्र में भी रुबाब है, तेरा वस्ल हो तो कमाल हो।
२ (अरविन्द)
मुझे तिश्नगी कि तलाश थी, तू है जामे-इश्क भरा हुआ,
लगे डर अभी भी हर एक नफस, कहीं कल न तुझको मलाल हो।

हम देर तक रोते रहे

उसकी आँखों में उम्मीदों का दिया बुझता रहा,
हम हवाओं को पता बतला के खुश होते रहे।

धीरे-धीरे गुम हुआ आँखों से दरिया अश्क का,
दिल हुआ फिर संग का, हम चैन से सोते रहे।

जिस ज़मीं पर काट डाले, तुमने मजदूरों के हाथ,
लोग बरसों से वहीँ, इक इन्कलाब बोते रहे।

कल जो काँधों पर था लौटा, सातवीं में फेल था,
सोच कर मर्जे-बगावत, हम देर तक रोते रहे।

लक्ष्य

बरसों से एक ही सवाल पूछता रहा हूँ मैं,
क्यों भटकता हूँ, दर-बदर?
क्या आस है, किसकी तलाश है?

पर हर बार वही जवाब दे देते हो तुम,
झांको अपने मन में।

पर, मन में तो अँधेरा है।
सन्नाटा है चारों तरफ।
इतनी चुप्पी कि हर टूटता लम्हा आवाज़ करता है।

शायद किसी कोने में छुपा बैठा हो लक्ष्य,
इक दिया तो दो, कुछ तो रौशनी आये।

आधा- अधूरा चाँद

कल रात मेरा ३ साल का बच्चा, खिड़की से बाहर देखते हुए पूछ बैठा,
पापा झूठ कहा था न आपने ?
कई रातों से देख रहा हूँ इसे, ये चाँद बड़ा ही नहीं होता।
रोज एक कुतरे हुए रोटी का टुकड़ा ही लगता है ये।

मैं चुप रहा, क्योंकि जानता था, समझा नहीं पाउँगा उसे,
कि मुंबई की आधी-अधूरी खिडकियों के मुट्ठी भर आसमान में,
चाँद दिखेगा तुम्हें, हमेशा आधा अधूरा ही...


एक तन्हा शहर..

भीड़ इतनी कि इस शहर में हर कन्धा ज़ख़्मी मिलेगा तुझे,
फिर भी दिल पसीजे ऐसा कोई दर्द नहीं।
सैकड़ों की भीड़ में सैकड़ों ही तन्हा हैं।
शब भर चाँद भी तन्हा डोलता है यहाँ।
उफक समेटता है रात की चादर,
दे के एक और बोझल दिन।

किसी एक के जाने से शहर कितना तन्हा हो जाता है,
है ना....

शनिवार, 19 फ़रवरी 2011

मुस्कुरा देता हूँ जब-जब, हार कर जाता हूँ मैं.

आज कल कुछ जंग सी है, मेरी मुझसे रात-दिन,
मुस्कुरा देता हूँ जब-जब, हार कर जाता हूँ मैं।

दिल के दरिया में भी अब, पानी बहुत है कम बचा,
डूबकर रहना तो चाहूँ, ... पार कर जाता हूँ मैं।

अब तो कस्बों में भी बातें,हैं सियासत कि भरी,
कुछ पुराने दोस्तों से, यार डर जाता हूँ मैं।

दिल जो हो मेरे मुखालिफ , तो मुझे कोई फ़िक्र क्या,
उसकी शरीके- रहजनी से, हर बार मर जाता हूँ मैं।

ये मेरी सोहबत नहीं..

मैं तुम्हें अब भूल जाऊँ ,ये मेरी फितरत नहीं।
तू मुझे पर याद रक्खे, ये तेरी आदत नहीं।

हमसफ़र हो सकता हूँ मैं, दर्देगम की राह में,
मुश्किलों में रहनुमा हो, ये मेरी सोहबत नहीं।

पहले थे हम मोहतरम, अब "तू" का उन्वा हो गए,
आइना भी बोल उट्ठा, कुछ बची शोहरत नहीं।

जब तुम्हें समझा सकूँ, अरसे से हूँ मैं मुन्तजिर,
उससे पहले टूट जाऊँ, इतनी कम उल्फत नहीं।

शुक्रवार, 18 फ़रवरी 2011

गीला सा चाँद

एक रात यूँ ही , जब देख रहा था मैं चाँद,
आवाज़ सुनी मैंने रोने की
देखा एक फूल सा बच्चा रो रहा था।
पूछा जब मैंने, तो असहाय गुस्से से, उसने कहा-

" झूठ कहते हैं सब, पापा भी,

कि मर गयी मेरी माँ।
अभी अभी तो देखा है मैंने उसे, चाँद में,
आप बोलो, आपने भी तो देखा था न, अभी-अभी। "

मैं हिम्मत नहीं जुटा सका , सच कहने की।
और तब तक, पिछली सारी बातों से बेखबर,
वो देखने लगा था, फिर चाँद को।

उभर आया था उसकी पनियाई आँखों में,
फिर एक गीला सा चाँद।

An old poem, written around 2002. Found my treasure diary, few days back :-)