शुक्रवार, 18 फ़रवरी 2011

गीला सा चाँद

एक रात यूँ ही , जब देख रहा था मैं चाँद,
आवाज़ सुनी मैंने रोने की
देखा एक फूल सा बच्चा रो रहा था।
पूछा जब मैंने, तो असहाय गुस्से से, उसने कहा-

" झूठ कहते हैं सब, पापा भी,

कि मर गयी मेरी माँ।
अभी अभी तो देखा है मैंने उसे, चाँद में,
आप बोलो, आपने भी तो देखा था न, अभी-अभी। "

मैं हिम्मत नहीं जुटा सका , सच कहने की।
और तब तक, पिछली सारी बातों से बेखबर,
वो देखने लगा था, फिर चाँद को।

उभर आया था उसकी पनियाई आँखों में,
फिर एक गीला सा चाँद।

An old poem, written around 2002. Found my treasure diary, few days back :-)

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