उसकी आँखों में उम्मीदों का दिया बुझता रहा,
हम हवाओं को पता बतला के खुश होते रहे।
धीरे-धीरे गुम हुआ आँखों से दरिया अश्क का,
दिल हुआ फिर संग का, हम चैन से सोते रहे।
जिस ज़मीं पर काट डाले, तुमने मजदूरों के हाथ,
लोग बरसों से वहीँ, इक इन्कलाब बोते रहे।
कल जो काँधों पर था लौटा, सातवीं में फेल था,
सोच कर मर्जे-बगावत, हम देर तक रोते रहे।
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