कल रात मेरा ३ साल का बच्चा, खिड़की से बाहर देखते हुए पूछ बैठा,
पापा झूठ कहा था न आपने ?
कई रातों से देख रहा हूँ इसे, ये चाँद बड़ा ही नहीं होता।
रोज एक कुतरे हुए रोटी का टुकड़ा ही लगता है ये।
मैं चुप रहा, क्योंकि जानता था, समझा नहीं पाउँगा उसे,
कि मुंबई की आधी-अधूरी खिडकियों के मुट्ठी भर आसमान में,
चाँद दिखेगा तुम्हें, हमेशा आधा अधूरा ही...
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