सोमवार, 28 दिसंबर 2009

बस ...देखते जाइये

इस सारी व्यवस्था में शांति बनाये रखने वाले चाहते हैं,
कि तुम देखो पर तुम्हे एहसास न हो दिखने का।
तुम अपने बहरेपन का ढोंग लिए सुनो,
हर घुटी हुई चीख को।
तुम बोलो पर ध्यान रहे,
आवाज़ बिलकुल नहीं आनी चाहिए।
क्योंकि उठती हुई आवाजों से
मच जायेगा कोलाहल, भंग होगी शांति और,
व्यर्थ जायेगा परिश्रम उन तथाकथिक शांतिदूतों का।
इसलिए इस व्यवस्था और फैली हुई शांति को,
हो रहे हादसों के बीच,
देखिये और देखते जाइये,
बस.... देखते जाइये।

बस एक ख्वाब

एक ख्वाब बचाकर रखा है मैंने,
सबकी नज़र से, सिर्फ अपने लिए।
कोई अहमियत नहीं उसकी दुनिया के लिए पर,
जुडा है उसका एक-एक कतरा तुमसे।
मैं चाहता हूँ कि देख पाऊ तुम्हे,बस एक नज़र।
जानता हूँ जबकि कुछ नहीं कहना है मुझे,
(फिर कुछ क्यूँ अनकहा रहा हमारे बीच।)
बस मैं चाहता हूँ कि खो जाऊ गुमनामी के अँधेरे में,
तुम्हे देखने के बाद।

शुक्रवार, 27 नवंबर 2009

गहराता धुंधलका

मैं महसूस करता हूँ, हर पल दूर जाती हुई तुम्हारे क़दमों की आहट।
शाम के धुंधलके के नज़र आता है एक साया...
मैं आवाजें देता हूँ, अजीब सी खामोश आवाजें।
जो तुम तक पहुँचती तो हैं, पर उसे तुम
अनसुना कर बढ़ते चले जाते हो।
एक मोड़ पर पलटते हो , तो बस
अपरिचय झलकता है तुम्हारी आंखों से।
मुड जाते हो तुम उस मोड़ से, और
छोड़ जाते हो
आंखों में गहराता धुंधलका...

बस, मत जाओ दीदी

कितना सूना सा लगेगा घर,
जब तुम चली जाओगी।
मैं पल भर में बड़ा हो जाऊंगा,
ना रूठूंगा, ना ही रोक पाउँगा तुम्हे।
पापा अपनी फीकी मुस्कराहट में,
छुपा नही सकेंगे अपने आंसू।
और तुम, उनकी लाडली, जार- जार रोये जाओगी
माँ की गोद में।
मैं सूखी आँखों से बस देखूंगा तुम्हे...
(पता नही क्यूँ तुम्हारे जाने की ख़बर ने,
मुझे बड़ा बना दिया है।)
तुम मुझसे लग कर रोने लगोगी...
और मैं... मैं तो ये भी नही कह पाउँगा...
" मुझे मेरा बचपन लौटा दो
बस, मत जाओ दीदी"

अव्यावसायिक प्रलाप

अरसे बाद मिले भी तो
औपचारिकतायें ही शेष थी,
तुम्हारी निश्छलता और भावुकता पर भी
व्यावसायिकता की गर्द थी।
मैं भी बड़ी ख़ूबसूरती से
अपनी भावनाओं को छुपाये,
याद करता रहा,
गुलमोहर का वो पेड़ और
युकिलिप्तुस की पत्तियां, जिसे गिरते देखना
तुम्हारा शौक था (और इस वजह से मेरी मजबूरी...)
गार्डेन में बैठे हम दोनों की दुनिया भर की बातें
मेरी परेशानियाँ और तुम्हारे सुझाव।
और सोचता रहा,
क्या तुम्हे याद होगा...
वो मेरे पैरों में cactus का चुभना,
और देर तक तुम्हारा मेरे पैरों को सहलाना।
ये सोच कर छलछला गई हैं आँखें,
और मैंने कहा थोड़ी प्रॉब्लम है आंखों में आजकल,
तुमने कर दिए suggest कई डॉक्टरों के नाम।
इस बीच मैंने झाँका तुम्हारी आंखों में,
नही था एक कतरा भी पानी का वहां।
मैंने पाया, मेरा वो जादुई चराग
तुम्हारे locker में बंद है,
और ताले की शक्ल...
हूबहू reaserve bank के नोट की तरह है।

अनकही बातें

मैं क्यूँ नही समझ पाता
तुम्हारी अनकही बातें।
वो बातें जो तुम छोड़ देते हो, कहते कहते...
और फिर हँस देते हो एक फीकी हँसी।
आँखों में तैर सा जाता है पानी,
और मैं, नही समझ पाता कुछ भी
ना वो हँसी, ना आँख का पानी।
इस दरमियान कह जाते हो बहुत कुछ तुम
पर मैं उलझा रह जाता हूँ इसी सवाल में,
कि... क्यूँ नही समझ पाता मैं
तुम्हारी अनकही बातें

जिन्दगी रही तो मिलेंगे

मैं ये नही कहता कि,
रास्ते अलग हैं हमारे।
पर तुम्हारी मंजिल है बहुत दूर
और नही चल सकते तुम,
मुझे वहां तक ढोकर।
इसीलिए बेहतर है कि,
किसी मोड़ पर अलग हो जायें हम तुम,
बिना कुछ कहे,
न ही करें ये वायदा कि,
" जिंदगी रही तो मिलेंगे"।

मंगलवार, 17 नवंबर 2009

A life thousand miles away

A life thousand miles away,
still so close,that I can feel the breath.
Tiny li'l breaths,that tickles my nose.
A sigh so mute,yet so loud.
A cry that makes my eyes moist.
A morning which becomes good everyday,
when you wake up from your bed,
A thousand miles away.

शनिवार, 14 नवंबर 2009

गुम हैं शब्द

मिलते नही शब्द अब ढूंढें से भी
सबके सब गुम हैं मानो, अतल गहराई में।
मैं गोता लगता हूँ भावनाओं के समंदर में,
अन्दर तक भीग जाता हूँ कई बार, पर
जब बाहर आता हूँ तो शब्द नही मिलते,
और भावनाएं मर सी जाती हैं।
मैं जानता हूँ कि एक दिन सड़ने लगेंगी,
ये भावनाएं बिना शब्दों के।
और मैं लूँगा आखरी साँस
इन्हीं भावनाओं के बोझ तले।

एक सपना निजी सा

सपने देखे हैं मैंने, कुछ बेगाने से
जो पले हैं बरसों से उन आँखों में जिसने मुझे जिन्दगी दी।

इसलिए नही कि मैं कोई फ़र्ज़ निभाना चाहता हूँ,
या मैं कुछ और सोच ही नही सकता।
बल्कि इसलिए कि इतने सपनो के बीच,
कोई हक नही मुझे,कि मैं देखूं
एक सपना निजी सा.

ना शिकस्ता-दीद की करवटें ...

ना शिकस्ता-दीद की करवटें, ना नज़र पे कोई नकाब है।
जिसे सोचते हो हुस्न तुम, वो असल में कुफ्र--शबाब है।

ना रश्म--राह का शऊर है, ना सलाम की तुझे आदतें,
सरे-राह मुड के यूँ घूरना, ये जवाब भी कोई जवाब है।

किसी जीस्त में यूँ दखल करुँ, ये गुनाह माना अजीम है,
तुझे सोच पैरहन की दूँ, तो गुनाह भी इक सवाब है।