शुक्रवार, 27 नवंबर 2009

गहराता धुंधलका

मैं महसूस करता हूँ, हर पल दूर जाती हुई तुम्हारे क़दमों की आहट।
शाम के धुंधलके के नज़र आता है एक साया...
मैं आवाजें देता हूँ, अजीब सी खामोश आवाजें।
जो तुम तक पहुँचती तो हैं, पर उसे तुम
अनसुना कर बढ़ते चले जाते हो।
एक मोड़ पर पलटते हो , तो बस
अपरिचय झलकता है तुम्हारी आंखों से।
मुड जाते हो तुम उस मोड़ से, और
छोड़ जाते हो
आंखों में गहराता धुंधलका...

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