शुक्रवार, 27 नवंबर 2009

अव्यावसायिक प्रलाप

अरसे बाद मिले भी तो
औपचारिकतायें ही शेष थी,
तुम्हारी निश्छलता और भावुकता पर भी
व्यावसायिकता की गर्द थी।
मैं भी बड़ी ख़ूबसूरती से
अपनी भावनाओं को छुपाये,
याद करता रहा,
गुलमोहर का वो पेड़ और
युकिलिप्तुस की पत्तियां, जिसे गिरते देखना
तुम्हारा शौक था (और इस वजह से मेरी मजबूरी...)
गार्डेन में बैठे हम दोनों की दुनिया भर की बातें
मेरी परेशानियाँ और तुम्हारे सुझाव।
और सोचता रहा,
क्या तुम्हे याद होगा...
वो मेरे पैरों में cactus का चुभना,
और देर तक तुम्हारा मेरे पैरों को सहलाना।
ये सोच कर छलछला गई हैं आँखें,
और मैंने कहा थोड़ी प्रॉब्लम है आंखों में आजकल,
तुमने कर दिए suggest कई डॉक्टरों के नाम।
इस बीच मैंने झाँका तुम्हारी आंखों में,
नही था एक कतरा भी पानी का वहां।
मैंने पाया, मेरा वो जादुई चराग
तुम्हारे locker में बंद है,
और ताले की शक्ल...
हूबहू reaserve bank के नोट की तरह है।

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