सोमवार, 31 मार्च 2014

Ghazal

मैं दर्द सह ना सकूँ, ऐसी इक दुआ दे दो,
कि मर्ज़-ए-डर को मेरे, कोई अब शिफा दे दो।

मैं चूम लूँगा फलक को, जमीं से उठकर भी,
मुझे सहारा नहीं, सिर्फ हौसला दे दो।

हमारे रिश्तों में लौटेगी, फिर वो बेताबी,
फिराक फिर जो वही, एक मर्तबा दे दो।

कहाँ मैं चाहूँ कभी, तितलियों सा उड़ना अब,
वो बचपने का मेरा, ख्वाब गुमशुदा दे दो।

कई सदी से मिला है, अजीब शक्लों में,
दिखे जो मुझसा, मुझे ऐसा इक खुदा दे दो।

मंगलवार, 25 मार्च 2014

उधार

उधार है मुझपर एक चायवाले का।
कुल पंद्रह रूपये थे शायद,
ठीक-ठीक याद नहीं आता अब।
वक़्त भी तो कितना हो चला है,
इस बात को गुज़रे।

शायद पाँच लोग थे हम।
कॉलेज के आखिरी दिन,
ढाबे पे चाय पीने वाले,
पाँच आखिरी लोग।

और दिनों की तरह खिलन्दरे नहीं थे हम,
ना ही ढाबे वाला बातें बता रहा था हमें,
लडकियों के हॉस्टल की।
एक दर्द था, जो चाय की घूंटों के साथ,
गहरे उतर रहा था।
ख़ामोश, थरथराते लबों से पी रहे थे हम,
गुज़रे चार साल, घूँट-घूँट भर।

खैर, चाय ख़तम की और जेब में हाथ डाला,
मेरी बारी थी उस दिन पैसे देने की।
चाय वाले ने हाथ थाम लिए,
बोला-
'बाबू, खाते में लिख दे रहा हूँ,
लौट के आना ज़रूर।
ना आने की सोचना भी मत।
क्योंकि, आज तक इस चायवाले के पैसे,
कोई हज़म नहीं कर पाया।'

इतना कहकर, वो मांजने लगा प्यालियाँ,
जैसे कुछ हुआ ही न हो।
जैसे आज़ाद हो गया हो वो,
मुझे पंद्रह रूपये की डोर से बांधकर।

मैं लौट नहीं पाया।
लेकिन, आज भी किसी ढाबे पे चाय पियूँ कभी,
तो उसकी चाय सनी उँगलियाँ,
चुभती है कलाईयों पर,
लगता है, आज तक याद है उसे,
पुराने खाते में लिखा मेरा नाम।
लगता है, अभी ताकीद करेगा वो,
कि 'उधार है तुझपर, एक चायवाले का।'

सोमवार, 24 मार्च 2014

बहुत सी बातें बतानी हैं तुझे

मेरे कस्बे में समन्दर नहीं है,
कुछ कतरे पानियों के कैद हैं,
तालाबों में।
जब भी घर जाता हूँ,
तो एक शाम गुज़ार देता हूँ,
मंदिर वाले तालाब की सीढियों पर।

तालाब का पानी बदलता नहीं कभी।
कैद है, शायद इसीलिए पहचानता है मुझे।
जब भी मिलूँ तो कहता है-
'अच्छा हुआ, तू आ गया।
बहुत सी बातें बतानी है तुझे।'
और फिर शुरू हो जाता है,
वो फलां दादी फौत हो गयी,
अलां के घर बेटा हुआ है,
चिलां बाबू की नौकरी छूट गयी।
मगरिब की तरफ का पीपल काट दिया, सड़क बनाने वालों ने,
वगैरह वगैरह।
फिर मुझसे मुखातिब होकर,
पूछता है-
'अच्छा ये तो बता, शहर के मिजाज़ कैसे हैं।
कौन बताता है तुझे, ख़बरें शहर की।'

मैं जवाब देता हूँ-
'समंदर है ना, ढेर सारा पानी..'
और इतना कहते ही,
एक बगूला पानी का
गले में अटक जाता है।
खुदाहाफिज़ कह चला आता हूँ,
वापस शहर में,
जहाँ एक बड़ा सा समंदर है।

रोज़ समंदर के किनारे बैठा,
देखता हूँ,
कैसे सैकड़ों गैलन पानी,
बदल जाते हैं, गुज़र जाते हैं।
एकाध कतरा पानी का,
मेरी तरफ भी उछाल देता है समंदर,
बस यूँ ही, बिना किसी जान-पहचान के।

अब रोज़ बदलते पानियों वाला समंदर,
कैसे पहचान पायेगा मुझे।
कैसे उम्मीद करूँ उससे
कि वो कहे-
'अच्छा हुआ तू आ गया,
बहुत सी बातें बतानी हैं तुझे'।

शनिवार, 22 मार्च 2014

Ghazal

कभी नन्हे कदम से, चल के जब भी जिन्दगी आई,
हुआ महसूस जैसे, तीरगी में रौशनी आई।

गुलों से रंग-बू सब, इन दिनों गायब हैं जाने क्यूँ,
लगे जैसे शहर में, फिर बहार इक कागज़ी आई।

कहाँ सीखा है कुछ भी, बुत से हमने, बुतपरस्ती में,
उखड़ जाते हैं जड़ से, जब भी आँधी मज़हबी आई।

जुबाँ पर एक कतरा, जब सुखन का रख लिया मैंने,
मेरे सूखे लबों पे, और गहरी तिश्नगी आई।

बुरी लत थी, कि मैं हर हाल में ही मुस्कुराता था,
बड़ी मुश्किल से मुझमें, ये मिज़ाजे-आजिजी आई।

शुक्रवार, 14 मार्च 2014

Ghazal

भरे हैं इस तरह हमने, जिए जाने के हरजाने,
लिखी हैं झूठी कुछ नज्में,सुनाये झूठे अफ़साने।

दिखाई दे रहे हैं दाग दिल के, आईने में यूँ,
कि अपने अक्स से मैं इन दिनों, लगता हूँ शरमाने।

फलक का चाँद बैरी, आज कल सोने नहीं देता,
वो अक्सर ख्वाब में,लगता है सारे ख्वाब गिनवाने।

सहर और शाम बेमतलब सा, मैं चलता रहा जानाँ,
तुम्हारे पास लौटा हूँ, तो बस शब भर को सुस्ताने।

हमारी जिन्दगी में, खैर अब भी प्यार है बाकी,
कि कुछ रातें जगी सी, आज भी बैठी हैं सिरहाने।

मंगलवार, 11 मार्च 2014

Ghazal

ये माना तुमको हर सूरत, इरादों को कुचलना है,
सुनो अपना इरादा भी, हमें तुमको बदलना है।

अगर दरिया बने हैं हम, तो फिर राहों की परवा क्या?
जिधर भी रास्ता निकले, उधर ही चल निकलना है।

यूँही बस कोसते रहने से, दुनिया है बदलती कब,
करो या मान लो नाहक, लहू का यूँ उबलना है।

सुना आसान होता है, ढलानों पर सफ़र करना,
मगर मुश्किल उमर का बेसबब, बेबात ढलना है।

अभी से कह न मुड़ने को, अभी बाकी है कितना कुछ,
अभी गिरना है ठोकर पे, अभी गिर के संभलना है।

आखिर दस मिनट होते ही कितने हैं?

आखिर दस मिनट होते ही कितने हैं?
बहुत कम लगते थे, दस मिनट अब तक मुझे,
थोड़ी देर की जगह, बड़ी बेरहमी से इस्तेमाल करता रहा हूँ इसे,
बस दस मिनट में मिलता हूँ,
या दस मिनट और लगेंगे,
ये जुमले तुमने भी कई बार सुने होंगे मुझसे।

पर आज जब बस दस मिनट के लिए मिला उससे,
तो जैसे कई साल पहले गुज़ारे हुए कई साल,
फिर से गुज़र गए।
बातें जितनी थी, सब धरी की धरी रह गयी,
पर बातों का क्या है, फिर हो जाएँगी।
आखिर वो कह के गया है,
अगली बार आएगा तो दस मिनट के लिए ही सही, मिलेगा ज़रूर।
दस मिनट तो निकाल ही सकते हैं हम।
आखिर दस मिनट होते ही कितने हैं?

गुरुवार, 6 मार्च 2014

Ghazal

कोई मुझसे ही गलती हो गयी है,
नज़र तेरी, जो नम सी हो गयी है।

उनींदी हैं, मेरी आँखें अभी तक,
सुबह कुछ आज, जल्दी हो गयी है।

जिकर जब भी, किया है मैंने तेरा,
इबारत सारी, गीली हो गयी है।

ज़रा पैसे, जो मेरे हाथ आये,
ख़ुशी बेबात, मँहगी हो गयी है।

फसल रोती रही है, पानियों बिन,
फलक पे खुश्क, बदली हो गयी है।

कभी मिलकर के तुम, वापस बिछड़ लो,
तुम्हारी याद, धुँधली हो गयी है।

लिखूँगा अब, मैं बस फरमाइशों पर,
कलम की, आज बिक्री हो गयी है।

मंगलवार, 4 मार्च 2014

Ghazal

अजब मशरूफ ये सारा ज़माना हो गया है,
लगे मकसद महज़, हमको हराना हो गया है।

यकीं किस्मत पे कर के, इन दिनों हम हैं बहुत खुश,
चलो नाकामियों का, इक बहाना हो गया है।

नज़ारे धुल गए हैं, अश्क की बारिश में जबसे,
हमारी दीद का मौसम, सुहाना हो गया है।

सुना त्योहार पर, अब चढ़ चुका है रंगे-मजहब,
बहुत मुश्किल यहाँ, होली मनाना हो गया है।

बड़ी शिद्दत से जिसको, ढूंढते हैं नज़्म में हम,
हमारा रब्त वो, कबका फ़साना हो गया है।
--------
मशरूफ- Busy
महज़- only
अश्क- Tears
दीद- Vision
शिद्दत- Passion
नज़्म- poem
रब्त- Relationship
फ़साना- story

शुक्रवार, 28 फ़रवरी 2014

Ghazal

खैर लाजिम है, हर इक बूँद का सहमा होना,
मिलके सागर से है, बेमानी सा दरिया होना।

भूख जैसी नहीं दुनिया में कोई चीज़ लगे,
हाए, हर तीसरे दिन का मेरे रोजा होना।

ख्वाब था, ख्वाब सी गुजरेगी तेरे साथ मगर,
जिन्दगी, रास कब आया तुझे सपना होना।

है मेरी जीस्त पे, यूँ सैकड़ों लोगों का असर,
पर बनाये मुझे मुझसा, मेरा मुझसा होना।

कितना भी जोड़ लूँ, रुकता नहीं है कुछ भी यहाँ,
उफ़ ये बरसात में, बरसात का दरिया होना।

मेरे अपने मुझे, अब देख के कतराते हैं,
जुर्म सा हो गया, इस मुल्क में क़स्बा होना।

सोमवार, 10 फ़रवरी 2014

इक बसंत मुझपे उधार है

अपनी पिछली भूल- वूल का,
सूखी शाखें, कुचले फूल का,
और मेरी अहदे-फ़िज़ूल का,
इक बसंत मुझ पे उधार है।

दिल में जलते अमलतास का,
डरते सपने, सहमी प्यास का,
नाई, मोची, संग-तरास का,
इक बसंत मुझ पे उधार है।

टूटे बिखरे ऐतबार का,
अपनी नज़रे-शर्मसार का,
और तुम्हारे इंतज़ार का,
इक बसंत मुझ पे उधार है।

मौसम के इस रंग-राग का,
मन में छाये इस विराग का,
और प्रिये तेरे सुहाग का,
इक बसंत मुझ पे उधार है।

बुधवार, 5 फ़रवरी 2014

Ghazal

ख़यालों से मेरे तल्खी हटा दो,
कलम से या मेरी स्याही हटा दो।

यहाँ अहसास कबके मर चुके हैं,
नए सपनों की सब अर्जी हटा दो।

परे दीवार के जब है अँधेरा,
तो इस दीवार से खिड़की हटा दो।

मैं ख्वाबों पर तभी लिख पाउँगा जब,
मेरे ख्वाबों से तुम रोटी हटा दो।

भला माज़ी पे कबतक सर धुनोगे,
दिलों से बात सब पिछली हटा दो।

मगर मुमकिन है कुछ भी कर गुज़रना,
जेहन पे गर घिरी बदली हटा दो।

Ghazal

अना की कब्र पर जबसे, गुलों को बो चुके हैं हम,
हमें लगने लगा है, फिर से जिंदा हो चुके हैं हम।

उगेंगे कल नए पौधे, यकीं कुछ यूँ हुआ हमको,
ज़मीं नम हो गयी है, आज इतना रो चुके हैं हम।

उतारे कोई अब तो, इन रिवाजों के सलीबों को,
छिले कंधे लिए, सदियों से इनको ढो चुके हैं हम।

मेरे सपने अभी तक डर रहे हैं, सुर्ख रंगों से,
हथेली से लहू यूँ तो, कभी का धो चुके हैं हम।

बची है अब कहाँ, मुँह में जुबाँ औ ताब आँखों में,
बहुत पाने की चाहत में, बहुत कुछ खो चुके हैं हम।

बुधवार, 22 जनवरी 2014

Ghazal

ये माना बिखरे रिश्तों में, भी कुछ बिखरा नहीं लगता,
मकाँ लेकिन अमीरों का, मुझे घर सा नहीं लगता।

मुझे परहेज कब है, महफ़िलों में मिलने-जुलने से,
मगर बेबात पे हँसना, मुझे अच्छा नहीं लगता।

भले कितनी ज़िरह कर लूँ, तेरे होने- न होने पर,
मेरी माँ को तेरा पलड़ा, कभी हल्का नहीं लगता।

न जाने क्यूँ ये कस्बाई, शहर की नींव बुनते हैं,
जो उनको इस कदर, बढ़ता शहर अपना नहीं लगता।

मुझे इतने ज़माने बाद, क्या पहचान पाओगे,
अभी तो अक्स भी मेरा, मुझे मुझसा नहीं लगता।

निखर आई है मेरी दीद, थोड़ी बावुजू होकर,
कि इस भीगी नज़र से, कोई अब धुंधला नहीं लगता।

जो पीछे मुड़ सकूँ तो, बेहतरी की थाह लूँ लेकिन,
यहाँ मसरूफियत है, माजी का मजमा नहीं लगता।

शनिवार, 11 जनवरी 2014

Ghazal

सब्ज़ सपने पिरो गयी शायद,
दिल में वो इश्क बो गयी शायद।

हर नज़र देखती है इस जानिब,
कुछ खता मुझसे हो गयी शायद।

भोर काँधे पे मेरी था काजल,
रात भर फिर वो रो गयी शायद।

भूल बैठा हूँ सूरते-साकी,
तिश्नगी दूर हो गयी शायद।

अब तो राहें हैं, सिर्फ राहें हैं,
एक मंजिल थी, खो गयी शायद।

बुधवार, 8 जनवरी 2014

तीसरे जनमदिन पर

शुरू के तीन दहाई साल
बस टुकड़ों में ही याद है मुझे।
कोई कोई वाकया, कोई कोई लमहा, बस।
कभी किसी साल को कुरेदूँ ,
तो लेदे कर घंटे - दो घंटे की यादें निकलती हैं।
कोई याद दिलाए तो यूँ सुनाता हूँ, जैसे बरसों पहले पढ़ी हुई नॉविल के चंद पन्ने सुनाता है कोई, ज़ेहन पर जोर डालकर।

पर हाल के तीन बरस, जब से वो आया है, हर पल साथ चलते हैं मेरे।
आँखें मूँद लूँ तो उसका हर लम्स, हर लफ्ज़ महसूस होता है मुझे।
उसका रूठना- मनाना, जागना- जगाना,
सब याद है मुझे।
आज भी उसके झूठे आंसुओं को सोच लूँ तो हँस देता हूँ,
वैसे ही जैसे कि, उसकी मुस्कुराहटों पर भींग जाती हैं पलकें।

ये कोई ख़ास बात नहीं शायद, हर वालिद ऐसा ही तो महसूस करता है।
खास ये है कि इन तीन सालों ने एक नयी जिंदगी दी है मुझे,
वो ज़िन्दगी जिसके हर लम्हे को मैं जी रहा हूँ, हर लम्हा, लम्हा दर लम्हा।

बुधवार, 1 जनवरी 2014

Ghazal

ये नज़र जाएगी, ये बदन जाएगा,
फिर भी दिल का कहाँ बाँकपन जाएगा।

सजदे में भी रहा चूमता जो जमीं,
किस तरह उसके दिल से वतन जाएगा।

बस इसी डर ने सोने दिया ना मुझे,
बेख़याली में सर से कफ़न जाएगा।

उसमें दिखने लगी हैं वही आदतें,
मुझको डर है, वो मुझसा ही बन जाएगा।

कुछ रूहानी नहीं, कुछ रूमानी नहीं,
कैसे तुझ तक ये मेरा सुखन जाएगा।