शनिवार, 22 मार्च 2014

Ghazal

कभी नन्हे कदम से, चल के जब भी जिन्दगी आई,
हुआ महसूस जैसे, तीरगी में रौशनी आई।

गुलों से रंग-बू सब, इन दिनों गायब हैं जाने क्यूँ,
लगे जैसे शहर में, फिर बहार इक कागज़ी आई।

कहाँ सीखा है कुछ भी, बुत से हमने, बुतपरस्ती में,
उखड़ जाते हैं जड़ से, जब भी आँधी मज़हबी आई।

जुबाँ पर एक कतरा, जब सुखन का रख लिया मैंने,
मेरे सूखे लबों पे, और गहरी तिश्नगी आई।

बुरी लत थी, कि मैं हर हाल में ही मुस्कुराता था,
बड़ी मुश्किल से मुझमें, ये मिज़ाजे-आजिजी आई।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें