मंगलवार, 25 मार्च 2014

उधार

उधार है मुझपर एक चायवाले का।
कुल पंद्रह रूपये थे शायद,
ठीक-ठीक याद नहीं आता अब।
वक़्त भी तो कितना हो चला है,
इस बात को गुज़रे।

शायद पाँच लोग थे हम।
कॉलेज के आखिरी दिन,
ढाबे पे चाय पीने वाले,
पाँच आखिरी लोग।

और दिनों की तरह खिलन्दरे नहीं थे हम,
ना ही ढाबे वाला बातें बता रहा था हमें,
लडकियों के हॉस्टल की।
एक दर्द था, जो चाय की घूंटों के साथ,
गहरे उतर रहा था।
ख़ामोश, थरथराते लबों से पी रहे थे हम,
गुज़रे चार साल, घूँट-घूँट भर।

खैर, चाय ख़तम की और जेब में हाथ डाला,
मेरी बारी थी उस दिन पैसे देने की।
चाय वाले ने हाथ थाम लिए,
बोला-
'बाबू, खाते में लिख दे रहा हूँ,
लौट के आना ज़रूर।
ना आने की सोचना भी मत।
क्योंकि, आज तक इस चायवाले के पैसे,
कोई हज़म नहीं कर पाया।'

इतना कहकर, वो मांजने लगा प्यालियाँ,
जैसे कुछ हुआ ही न हो।
जैसे आज़ाद हो गया हो वो,
मुझे पंद्रह रूपये की डोर से बांधकर।

मैं लौट नहीं पाया।
लेकिन, आज भी किसी ढाबे पे चाय पियूँ कभी,
तो उसकी चाय सनी उँगलियाँ,
चुभती है कलाईयों पर,
लगता है, आज तक याद है उसे,
पुराने खाते में लिखा मेरा नाम।
लगता है, अभी ताकीद करेगा वो,
कि 'उधार है तुझपर, एक चायवाले का।'

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