शुक्रवार, 28 फ़रवरी 2014

Ghazal

खैर लाजिम है, हर इक बूँद का सहमा होना,
मिलके सागर से है, बेमानी सा दरिया होना।

भूख जैसी नहीं दुनिया में कोई चीज़ लगे,
हाए, हर तीसरे दिन का मेरे रोजा होना।

ख्वाब था, ख्वाब सी गुजरेगी तेरे साथ मगर,
जिन्दगी, रास कब आया तुझे सपना होना।

है मेरी जीस्त पे, यूँ सैकड़ों लोगों का असर,
पर बनाये मुझे मुझसा, मेरा मुझसा होना।

कितना भी जोड़ लूँ, रुकता नहीं है कुछ भी यहाँ,
उफ़ ये बरसात में, बरसात का दरिया होना।

मेरे अपने मुझे, अब देख के कतराते हैं,
जुर्म सा हो गया, इस मुल्क में क़स्बा होना।

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