रविवार, 27 फ़रवरी 2011

लक्ष्य

बरसों से एक ही सवाल पूछता रहा हूँ मैं,
क्यों भटकता हूँ, दर-बदर?
क्या आस है, किसकी तलाश है?

पर हर बार वही जवाब दे देते हो तुम,
झांको अपने मन में।

पर, मन में तो अँधेरा है।
सन्नाटा है चारों तरफ।
इतनी चुप्पी कि हर टूटता लम्हा आवाज़ करता है।

शायद किसी कोने में छुपा बैठा हो लक्ष्य,
इक दिया तो दो, कुछ तो रौशनी आये।

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