जाते-जाते पन्नों पर, कुछ हर्फ़-ए-नम बिखरा गए,
कुछ किया ऐसा कि गीली जीस्त वो सुलगा गए.
मेरे सर को सजदों के रिश्ते, थे गुज़रे नागवार,
वो हमारी दोस्ती की शर्त भी ठुकरा गए.
एक कतरे की कदर जब, हम ना कर पाए कभी,
यूँ किया कि दरिया में रख, प्यास को तरसा गए.
"इस इबादत से भला, अब तक मिला क्या मोहतरम",
पूछा तो अब्बू ने बस सदका किया, मुस्का गए.
जीनत हो दुश्मन की भी, पर चौक पे अच्छी नहीं,
देख कर रस्म-ए- अदावत, हम बहुत शरमा गए.
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