शनिवार, 6 अगस्त 2011

दोगलापन

एक नज़्म पढ़ी तुमने और राय ज़ाहिर कर दी-
" संवेदनशील हो तुम".
एक तमाचा सा लगा मुझे,
जैसे दोगलापन मेरा,
ज़ाहिर हो गया हो तुम पर.

फिर भी पूछूँगा-
मैं संवेदनशील हूँ अगर,
तो वो है,
जो रौंदता, कुचलता बढ़ता है भीड़ को.
कौन है जो,
अनसुना, अनदेखा कर जाता है, बिलखते चेहरे भूख के.

अगर संवेदनशील हूँ मैं,
तो बताओ कौन है जो,
दूसरों के कन्धों पर पाँव रख, बढ़ता रहा आज तक.
जो तोलता रहा रिश्तों को रुतबे के तराजू में,
जिसने अहमियत ही न दी, गैर के अश्कों को कभी.

हैरान हो...
पूछोगे नहीं कि फिर ऐसी कवितायेँ क्यों,

शायद डरते हो, कहीं ये कह न दूं मैं,
"अब तुम सच्ची कवितायेँ नहीं पढ़ते".

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