शनिवार, 6 अगस्त 2011

अब कौन सम्भाले मुझे

अब कहाँ पहचान पाते मेरे घरवाले मुझे,

बिखरा हूँ, कोई मुस्कुराकर जोड़ ही डाले मुझे.


टूट कर चाहूँ उसे, ये बात है लाजिम मगर,

डरता हूँ, ये चाह ही, कल तोड़ ना डाले मुझे.


इस शहर में कहकहों की महफ़िलें सजती रही,

देखकर बस रो पड़े, इक घर के कुछ जाले मुझे.


मयकशी पर रोक है, मयखाने सारे बंद हैं,

बेखुदी के हाल में, अब कौन सम्भाले मुझे.


नज़्म हैं बिखरे हुए, है काफिया भी तंग सा,

राह में जब से मिले, कल "चाहने वाले" मुझे.


उसने दामन दर्द से भर के दिया खैरात में,

अब एक कतरा प्यार उसका, मार ना डाले मुझे.

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