मंगलवार, 23 जुलाई 2013

Ghazal

सुखन* पे सख्त कुछ ऐसे, मुआ मौसम गुज़रता है,
किताबें हैं छुपी बैठी, फलक सारा टपकता है।

तसल्ली होती है , डर देख के अब्बू की आँखों में,
कोई तो है जो मुझको , आज भी बच्चा समझता है।

तरक्की की दलीलें बेवजह हैं, जब तलक कोई,
किसी फुटपाथ पे बस दो निवाले को तरसता है।

तुझे आहों से मेरी, अब कभी तकलीफ ना होगी,
कि तेरा गम बिला आवाज़, अब दिल में सिसकता है।

भला इन वाह के, इन दाद के शेरों से क्या होगा,
मुकम्मल तब ग़ज़ल है, आह जब दिल में पसरता है।

*poem

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