शनिवार, 7 मई 2011

फसलें अश्क की...

दिन के हिस्से से चुराकर, कुछ अश्क अपने बो गए,
शाम को फिर फसलें काटी, रात भर हम रो गए।

इस शहर की नीव में, कुछ लाश हैं औंधे पड़े,
मकबरा था एक का, कई लोग कुर्बां हो गए।

कुछ तो हो अब रौशनी, कोई सहर तो आये भी,
रातों की स्याही रात भर, अश्कों से अपनी धो गए।

थी तमन्ना ये कि मंजिल पे पहुँच, सुस्ता भी लें,
है कठिन ये रहगुज़र, हम रास्ते में खो गए।

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