मंगलवार, 10 मई 2011

मौत एक सोच की...

मौत एक सोच की, यक-ब-यक नहीं होती,
कई साल लग जाते हैं, कभी- कभी कई जिंदगियां।

पर आज जाने क्या हुआ,
एक मुंडेर पे खड़ा हुआ, कई दिनों से वो,
अचानक बेआवाज़ गिर गया।

कोई धमाका, कोई खबर तक न हुई,
निज़ामे-जहाँ वैसे का वैसा चलता रहा।
वही शब-ओ-रोज़ की फिकर, वही दुनिया का कारोबार।

पर सोच औंधा पड़ा है अब भी, फटी आँखों से देखता है मेरी तरफ...
बंद हो जाएँगी ये पलकें भी, बस कुछ पल, कुछ महीने, कुछ साल ही बाकी हैं।

तड़पता रहेगा तब तक बेआवाज़, बेनियाज़ हो कर।
तड़पना ही नसीब है अब... सोच को नहीं थी इज़ाज़त ख़ुदकुशी की।

तड़पना होगा, क्यूंकि ...
सोच की मौत होती नहीं यक-ब-यक......

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें