रविवार, 8 मई 2011

बेवज़ह

क्यूँ मुंडेरों पर परिंदे, हैं मचलते बेवज़ह,
पर क़तर डाले हैं फिर भी, कोशिशें ये...बेवज़ह।

अपनी दूरी का सबब भी मैं ही था माना, मगर,
अब भी नज़रें ढूंढती हैं, उसको ही क्यूँ बेवज़ह।

शब जो मैंने चाँद देखा, कुछ था धुंधला-धुंधला सा,
जाने फिर क्या याद आया, पुर-नम हैं आँखें बेवज़ह।

'फिर मिलेंगे' कह गया वो, छू के पेशानी मेरी,
जब है वादा वस्ल का तो, हिज्र का ग़म बेवज़ह।

तेरी रातें, तेरे सपने, तेरे सारे दर्द-ओ-ग़म,
जब हैं सारी बातें तेरी, 'हम' का चर्चा बेवज़ह।

अपनी बीनाई लुटाकर, खुश बहुत हूँ आज-कल,
जब शहर भर है अँधेरा, फिर देखना क्या बेवज़ह।

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