रविवार, 3 अप्रैल 2011

जैसे कि बीमार को मिल जाये इक वजहे-करार..

मेरी सज़दाए-जबीं, है तेरे क़दमों पे निसार,
तू ही रौनक मेरे दिन का, तू ही शब का है निखार।

जब सुनी आमद कि तेरी, कुछ तो है ऐसा हुआ,

जैसे कि बीमार को मिल जाये इक वजहे-करार।

मेरे सारे अश्क ले कर, छुप के खुद रोता रहा,

या तो मैं हूँ नासमझ, या तूने तोडा है करार।


कसमकस है क्या कहूँ, वो मर्ज़ है या चारागर,

वो ही ग़म देता है मुझको, वो ही बनता गमगुसार।

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