आज अरसे बाद, सोचा कुछ लिखूँ उसके बारे में।
एक पुराना वादा था, शायद पूरा हो जाये।
सोचते- सोचते आधी गुजर चुकी है रात,
इतना कुछ एक नज़्म में कैसे समाएगा भला?
कैसे कह पाऊँगा वो सब, मैं इन चंद शब्दों में,
जो कोई भी कह न पाया, गुजरी कितनी सदियों में।
दिल के सफहों को पलट के कई बार पढ़ चूका हूँ मैं,
हर दफा लगता है, कुछ पन्ने छूट से गए हों।
कुछ अनकहा- अनसुना सा रह गया, जो कहीं दर्ज नहीं,
सोचता हूँ उससे मिल कर पूछ लूँगा।
और वो मेरी उलझनों से बेखबर, मुन्तजिर होगी कि कोई नज़्म पढूं।
हर आहट पे उठ बैठती होगी, कहीं ये नज़्म का उन्वान तो नहीं।
पर क्या करूँ, आज भी शायद वादा पूरा हो न पाया।
टाल कर मैं रह गया, आज भी उन ख्वाहिशों को,
जब सोचा था, लिखूंगा कुछ उसके बारे में,
आज अरसे बाद।
Audio link for poem - Click here
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें