तेरा नूरानी चेहरा बेनकाब, अच्छा नहीं लगता,
तेरा ये खुश्क अंदाज़े- जवाब अच्छा नहीं लगता।
शहर में आये हो, कुछ अपना अंदाज़ तो बदलो,
भीड़ झूठों कि हो, और सच में जवाब... अच्छा नहीं लगता।
मुझे आईने भी अब कहाँ पहचान पाते हैं ,
रोज़ चेहरे पर, नया इक नकाब, अच्छा नहीं लगता।
सोचा मांग लूं, वो जिसको हम कब से तरसते हैं,
ये अपने बीच का कौमी हिजाब, अच्छा नहीं लगता।
जो दिन में बात करता है, कोई भूखा न सो जाये,
उसी कि शामों में जामे- शराब , अच्छा नहीं लगता।
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