मायूसी:
दिन गया आवारगी में, शब को नाकारा फिरा,
जब भी खुद को देख पाया, अपनी नज़रों से गिरा।
तिश्नगी अब न रही, ता-उम्र जो हमराह थी,
खो गया वो ख्वाब भी, जब खुद ही वादे से फिरा।
उम्मीद:
एक कतरा प्यार का, एक लफ्ज़ कि कारीगरी,
इतने से ही जोड़ लूं मैं, टूटे रिश्तों का सिरा।
मैंने दामन इश्क का छोड़ा नहीं, उस वक़्त भी,
आँखें थी जलती हुई जब, दिल था नफरत से घिरा।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें