बहुत दिनों बाद आज मिला जिससे, वो अज़ीज़ था मेरा.
कई साल साथ गुजारे थे हमने.
कभी नुसरत को सुना था, कभी खुसरो की दुहाई दी थी.
हर वक़्त आँखें चमकती थी उसकी, एक विश्वास से.
एक जोश निहा था उसकी बातों में, हर वक़्त.
बेपरवाह ज़माने से इतना, कि "जय माता दी" के शोर में भी,
"अल्ला हू" की तान जोड़ दे.
और शराबखानों में ऐलान कर दे, " आज व्रत है मेरा, माफ़ करना".
पर आज जब वो मिला, तो परेशान था,
हार कर खुद से, नज़रें चुराता रहा.
बहुत कहा मैंने -
"आज की रात रूक जा, मैं सहेजूँगा तेरे ज़ख्म.
मेरे कितने दर्द संभाले हैं तूने, आज क़र्ज़ उतार लेने दे."
आँखों की नमी छुपाता हुआ, बोल पड़ा वो -
" दोस्त जाने दे अब, बहुत देर हो चुकी है."
वो वादा कर के गया है, फिर मिलूँगा,
जब हालात सुधर जायेंगे.
जाने किस डर से, दुआ में उठ गए मेरे हाथ,
और कांपते लफ़्ज़ों में, बेसाख्ता मुँह से निकल पड़ा मेरे.
आमीन.....
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