शुक्रवार, 7 अक्तूबर 2011

जुड़वें

मेरी सोच और वो, जुड़वें हैं दोनों.
शायद मिनटों का ही फासला होगा हमारे बीच.
और राब्ता इतना गहरा, कि एक पल भी दूर नहीं रह पाते हम.
कभी एक दिन के लिए बिछड़ जाऊं, तो ढूंढ ही लेता है मुझे.

राह चलते कभी तपाक से गले लग, कहता है "पहचाना?".
मैं मुस्कुराकर थाम लेता हूँ हाथ उसका, और चल पड़ता हूँ आगे सफ़र पे.

अब तो यकीं हो चला है मुझे, कोई और साथ हो न हो,
मेरी सोच कि हाथ थामे, हमेशा चलेगा, मेरा दर्द...

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