इसी को सोच कर आँखों से कुछ आँसू मचल निकले,
जिन्हें था जिन्दगी समझा, वो जीने का शगल निकले।
जो बिखरी सीपियाँ हैं, रेत पे साहिल की, माजी के,
उन्हीं में ढूंढ लो शायद, कहीं मेरी ग़ज़ल निकले।
कदम थे साथ रक्खे, उंगलियाँ थामे रहे मेरी,
मगर जब लडखडाया मैं, तो छोड़ा, और संभल निकले।
जो तेरी आरिजों पे हैं, मेरे आंसू नहीं लगते,
ये ग़म साझा नहीं जिससे, तेरी आँखें सजल निकले।
खुदी से हार कर खुद मैं, तेरे क़दमों में आया हूँ,
तू ही दे मशविरा कोई, कहीं रस्ता सरल निकले।
जिन्हें था जिन्दगी समझा, वो जीने का शगल निकले।
जो बिखरी सीपियाँ हैं, रेत पे साहिल की, माजी के,
उन्हीं में ढूंढ लो शायद, कहीं मेरी ग़ज़ल निकले।
कदम थे साथ रक्खे, उंगलियाँ थामे रहे मेरी,
मगर जब लडखडाया मैं, तो छोड़ा, और संभल निकले।
जो तेरी आरिजों पे हैं, मेरे आंसू नहीं लगते,
ये ग़म साझा नहीं जिससे, तेरी आँखें सजल निकले।
खुदी से हार कर खुद मैं, तेरे क़दमों में आया हूँ,
तू ही दे मशविरा कोई, कहीं रस्ता सरल निकले।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें