बुधवार, 27 फ़रवरी 2013

Ghazal

देख लो, ये ज़िन्दगी-ए-आम है,
भूख खौली, बासी ठंडी शाम है।

किसकी खातिर मैं यहाँ रातें जगूँ,
दूर जा बैठा मेरा घनशाम है।

इक शज़र पे मैंने लायी है खिज़ां,
सर पे मेरे ये नया इलज़ाम है।

तर्क-ए-उल्फत सोच कर रोये मगर,
अब यहाँ आराम ही आराम है।

मुड़ न पाओगे, जो उस जानिब गए,
बच के चलना, राह-ए- सच बदनाम है।

शौक से जलते नहीं चूल्हे कभी,
शायरी इक भूलता सा नाम है।

बुतकदों में ढूंढता हूँ फिर तुझे,
फिर मुझे तुझसे पड़ा कुछ काम है।

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