गुरुवार, 21 नवंबर 2013

Ghazal

सुना जब बिक गया घर, शादियों की देनदारी से,
चमक फीकी पड़ी है चेहरे की, गोटा-किनारी से।

कमर रस्मे-परस्तिश में,मेरी अब है झुकी जाती,
बहुत उकता गया हूँ, बेवजह की खाकसारी से।

रहूँ जब होश में, तो सैकड़ों ग़म हैं सुलाने को,
तुम्हारी याद, बामुश्किल जगायी है खुमारी से।

सिवाए प्यार के तेरे, कमाई कुछ नहीं मेरी,
उमर कट जाएगी लेकिन, बस इतनी रेजगारी से।

चलो साझा करें हम, आज से सब गलतियाँ अपनी,
कहीं दूरी न बढ़ जाये, मुई मेरी- तुम्हारी से।

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