शुक्रवार, 29 नवंबर 2013

Ghazal

सलामत हैं मेरी रातें, है साबुत हर सहर मेरा,
मगर जो लुत्फ़ लेता था, कहाँ है वो जिगर मेरा?

मेरे ख्वाबों को लाखों चाहिए, तामील होने तक,
मेरा शायर मगर खुश है, उसे प्यारा सिफ़र मेरा।

मेरी हर बदगुमानी को, सही कहने लगे हैं सब,
मुझे अपना समझता ही नहीं, अब ये शहर मेरा।

परेशानी यही बस एक है, तनहाई चुनने में,
जो मैं चुप हो गया तो, होता है खामोश घर मेरा।

बड़ा होकर वो फिर अपनी, नयी दुनिया बसा लेगा,
बड़े नाजों से पलता है, मेरे दिल का ये डर मेरा।

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