बुधवार, 19 जून 2013

Ghazal

हमेशा कल पे हमने देखी टलती, चाँद सी रोटी,
धुँआई अश्क में बेबस सिसकती, चाँद सी रोटी।

तुम्हारी अलहदा ख्वाहिश, तुम्हारे अलहदा सपने,
हमें तो ख्वाब में भी बस है दिखती, चाँद सी रोटी।

हो झगड़ा तेरा-मेरा, इसका-उसका जिसका-तिसका हो,
ये कैसी आग है फैली, कि जलती चाँद सी रोटी।

शहर में बेचने वाले, बहुत कुछ बेच देते हैं,
यहाँ सबसे है लेकिन, मंहगी बिकती चाँद सी रोटी।

सुबह से शाम तक पीछा करूँ, मैं इक निवाले का,
मगर कमबख्त कब देखें, है थमती चाँद सी रोटी।

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