सोमवार, 14 अक्तूबर 2013

Ghazal

अगर बस साँस लेना, होना है, बेशक मैं होता हूँ,
मगर सब मायने जीने के, यूँ होने में खोता हूँ।

हदें बढ़ने लगी हैं, जबसे सपनों की मेरे दिल में,
मैं खेतों से परे, सड़कों पे थोड़े ख्वाब बोता हूँ।

चरागों की तरफ से, जबसे आँखें मूँद ली मैंने,
जेहन बेनूर है लेकिन, सुकूँ के साथ सोता हूँ।

बचा के चन्द टुकड़े रोटियों के, कल की खातिर मैं,
बहुत शर्मिंदा होकर फिर उन्ही ख्वाबों को रोता हूँ।

मेरी गज़लों के सारे हर्फ़, अक्सर भीग जाते हैं,
तुम्हारे दर्द के किस्से, मैं जब इनमें पिरोता हूँ।

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