शुक्रवार, 27 दिसंबर 2013

Ghazal

अब स्याह निगाहों में, इक रंग गुलाबी है,
ये इश्क की लौ है जो, इस शब ने जला दी है।

रूटीन से जीने में ,तकलीफ नहीं  लेकिन,
क्यों नींद भला शब भर, आती है न जाती है।

कमरे में घुटन सी है, कुछ सोच नहीं पाता,
कमबख्त मुई खिड़की, खुलती ही ज़रा सी है।

जख्मों की दुकानों पर, मरहम है बहुत बिकता,
बम्बई के बजारों ने , ये बात सिखा दी है।

माना कि अना तुमको, करती थी बहुत रुसवा,
आ जाओ कि हमने वो, दीवार गिरा ली है।

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