थरथराते होंठो से शब भर गुनगुनाती रही,
एक अनसुना नगमा.
दीवानावार सुनाती रही पोशीदा बातें राज़ की.
मैंने टोका तो बड़े लाड़ से बोली,
आखिरी शब है ये, बस आज तो जी लूँ मैं.
रात भर ओस की ठंडी पट्टियाँ रखी माथे पर,
ख़यालों के दुशाले उढ़ाए हैं लरजते बदन को,
दुआओं में बख्शी है सारी उम्र अपनी,
तब जाकर कहीं पौ फटे नींद आई है इसे.
सुबह निकला तो ताकीद कर आया,
"देखना कोई जगाये न इसे, देर से सो पायी है,
बहुत बीमार थी ये नज़्म, कल रात."