सोमवार, 10 अक्टूबर 2011
जगजीत के लिए..
तपती दुपहरी में देस का चाँद दिखाया था मुझे,
वो कि जिसने मुझे रातों को जगाये रक्खा,
पौ फटे रोज़, फिर जिसने सुलाया था मुझे,
हरेक नज़्म थी ऐसी, कि इबादत हो कोई,
किसी फकीर के होठों पे शिकायत हो कोई,
वो तो जिस राह से गुजरा, वहीँ पे खेमे लगे,
यूँ लगा, शख्स नहीं जैसे बगावत हो कोई.
वो जो हरदिल-अजीज़ था,मेरा था राहनुमा,
सुना है आज वो शख्स मुझे छोड़ गया.
जगजीत के लिए (जो अब भी यादों में है)
रविवार, 9 अक्टूबर 2011
आमीन
कई साल साथ गुजारे थे हमने.
कभी नुसरत को सुना था, कभी खुसरो की दुहाई दी थी.
हर वक़्त आँखें चमकती थी उसकी, एक विश्वास से.
एक जोश निहा था उसकी बातों में, हर वक़्त.
बेपरवाह ज़माने से इतना, कि "जय माता दी" के शोर में भी,
"अल्ला हू" की तान जोड़ दे.
और शराबखानों में ऐलान कर दे, " आज व्रत है मेरा, माफ़ करना".
पर आज जब वो मिला, तो परेशान था,
हार कर खुद से, नज़रें चुराता रहा.
बहुत कहा मैंने -
"आज की रात रूक जा, मैं सहेजूँगा तेरे ज़ख्म.
मेरे कितने दर्द संभाले हैं तूने, आज क़र्ज़ उतार लेने दे."
आँखों की नमी छुपाता हुआ, बोल पड़ा वो -
" दोस्त जाने दे अब, बहुत देर हो चुकी है."
वो वादा कर के गया है, फिर मिलूँगा,
जब हालात सुधर जायेंगे.
जाने किस डर से, दुआ में उठ गए मेरे हाथ,
और कांपते लफ़्ज़ों में, बेसाख्ता मुँह से निकल पड़ा मेरे.
आमीन.....
शुक्रवार, 7 अक्टूबर 2011
जुड़वें
शायद मिनटों का ही फासला होगा हमारे बीच.
और राब्ता इतना गहरा, कि एक पल भी दूर नहीं रह पाते हम.
कभी एक दिन के लिए बिछड़ जाऊं, तो ढूंढ ही लेता है मुझे.
राह चलते कभी तपाक से गले लग, कहता है "पहचाना?".
मैं मुस्कुराकर थाम लेता हूँ हाथ उसका, और चल पड़ता हूँ आगे सफ़र पे.
अब तो यकीं हो चला है मुझे, कोई और साथ हो न हो,
मेरी सोच कि हाथ थामे, हमेशा चलेगा, मेरा दर्द...
गुफ्तगू
" किस बात का गम है तुझे,
क्यूँ इस कदर नाराज़ है, सारे ज़हां से,
तेरी हर नज़्म क्यूँ डूबी हुई है, दर्द की चासनी में."
वो हर बार मुस्कुराकर कहता,
कुछ नहीं सब ठीक ही तो है.
पर आज जाने क्या हुआ,
अनमने ढंग से वो बोल पड़ा:
"क्या कर पाओगे तुम मेरी खातिर?
जब भी कोशिशें की मैंने नज़्म लिखने की, चाहत भरी,
हर्फ़ फीके पड़ गए.
मानो किसी शरारती बच्चे ने घोल दिया हो दर्द का पानी,
मेरी स्याही में.
अजीब सा रंग है ये, ख़ुशी उभरती ही नहीं
और दर्द गहरा उतरता है, कागज़ पर.
हो सके तो कल ले आना, खुशियों वाली स्याही बाज़ार से.
क्या कर पाओगे इतना?"
इतना कह खामोश हो गया वो.
पर मैं तब से बैठा हूँ, गुमसुम सा,
लिए आईने को गोद में...
बच्चे कुछ जल्दी बड़े हो गए
क्या नया किया उसने?
क्या आज उसने मेरा नाम लेकर पुकारा मुझे?
क्या आज उसके कदम बढ़ सके खुद-ब-खुद?
इन सवालों पर झुंझलाकर कहती हो कि,
ये सब वक़्त के साथ ही होगा,
अभी बहुत छोटा है हमारा बच्चा.
पर मैं बेताब सा इस इंतज़ार में हूँ,
कि कब वो बड़ा हो और थाम ले,
मेरे सपनो कि ऊँगलियाँ.
इस सोच से कभी-कभी डर भी जाता हूँ,
क्या पता कि सपनो के साथ वो इतना आगे न चला जाये
कि हम सब धुंधले से दिखें उसे.
मेरी तरह वो भी बस हफ्ते के १० मिनट दे पाए घर को.
डरता हूँ कहीं किसी सूने से घर में बैठे हम दोनों,
खाली आँखों से ये सवाल ना करें,
" तुम्हे नहीं लगता कि बच्चे कुछ जल्दी बड़े हो गए"...
वो हमारी दोस्ती की शर्त भी ठुकरा गए
कुछ किया ऐसा कि गीली जीस्त वो सुलगा गए.
मेरे सर को सजदों के रिश्ते, थे गुज़रे नागवार,
वो हमारी दोस्ती की शर्त भी ठुकरा गए.
एक कतरे की कदर जब, हम ना कर पाए कभी,
यूँ किया कि दरिया में रख, प्यास को तरसा गए.
"इस इबादत से भला, अब तक मिला क्या मोहतरम",
पूछा तो अब्बू ने बस, सदका किया, मुस्का गए.
जीनत हो दुश्मन की भी, पर चौक पे अच्छी नहीं,
देख कर रस्म-ए- अदावत, हम बहुत शरमा गए.
दुआओं का मुझतक असर नहीं आता
बात में उसकी कभी मेरा जिकर नहीं आता.
दुआएं माँ की हर वक़्त मेरे नाम रही,
मगर दुआओं का मुझतक असर नहीं आता.
मैं आबलापा हूँ, है जलता हुआ सफ़र मेरा,
मेरी तलाश में एक भी शजर भी नहीं आता.
वही है चेहरा, वही दर्द उसकी आँखों में.
मगर ये अक्स मेरा, मुझसा नज़र नहीं आता.
हूँ उसकी राह में पलकें बिछाए मैं कबसे,
है इतना इल्म उसे, फिर भी इधर नहीं आता.
गुरुवार, 29 सितंबर 2011
चाय की टपरी
सब वैसे का वैसा था.
मानो इस गली ने बंद कर रक्खे हों,
अपनी सारी खिड़कियाँ और दरवाज़े.
कोई बदलाव ना आने सके, इसलिए नुक्कड़ पे पान वाले ताऊ ने,
आज भी विविध भारती बजाये रक्खा है.
पर मैं शायद बदल गया, आते ही रौब से कहा,
"एक स्पेशल चाय दे बे, छोटू"
सहम सा गया वो, पूछा तक नहीं उसने तुम्हारे बारे में,
और गर पूछ बैठता भी, तो क्या बताता मैं,
कि अब तुम्हे टपरी की चाय नहीं भाती,
या ये कि अब नहीं पीते उधार की तुम,
ना ही पूछते हो किसी छोटू से ,
" पाँच का पहाड़ा याद हुआ तुझे?"
अपने बदलाव को सोचते हुए उठ खड़ा हुआ ,
दस का नोट टेबल पे रख, अभी निकला ही था,
कि छोटू ने आवाज़ लगायी,
"साहब, आपके छुट्टे"
शर्मिंदा सा, वो टिप उठाये, चला आया था मैं.
इस ख़त के साथ, वही कुछ सिक्के, पिछली यादों के,
भेज रहा हूँ.
इन्हें देख, अगर याद आये गली की तुम्हे,तो आ जाना,
मैं इंतज़ार करूँगा हर शाम,उसी चाय की टपरी पर...
रविवार, 4 सितंबर 2011
प्यास को तरसा गए
कुछ किया ऐसा कि गीली जीस्त वो सुलगा गए.
मेरे सर को सजदों के रिश्ते, थे गुज़रे नागवार,
वो हमारी दोस्ती की शर्त भी ठुकरा गए.
एक कतरे की कदर जब, हम ना कर पाए कभी,
यूँ किया कि दरिया में रख, प्यास को तरसा गए.
"इस इबादत से भला, अब तक मिला क्या मोहतरम",
पूछा तो अब्बू ने बस सदका किया, मुस्का गए.
जीनत हो दुश्मन की भी, पर चौक पे अच्छी नहीं,
देख कर रस्म-ए- अदावत, हम बहुत शरमा गए.
शनिवार, 27 अगस्त 2011
बुरा नहीं लगता
बेगरज काम में आना, बुरा नहीं लगता.
एक मोड़, जिससे होके हम गुजरे थे कभी,
वहीँ पे लौट के आना, बुरा नहीं लगता.
खफा हो तुम, मगर है बात क्या, मालूम नहीं,
वजह बिन समझे मनाना, बुरा नहीं लगता.
वो एक शख्स जो हमराह है, हमराज भी है,
उसी से राज छुपाना, बुरा नहीं लगता.
अब ना सताए कोई
बिछड़ा हूँ, अपने आप से मुझको मिलाये कोई.
दिल का लगाना जब तक हो जाये ना ज़रूरी,
बेहतर यही है तब तक, दिल न लगाये कोई.
इक अरसे से हूँ जागा, बोझल हैं पलकें मेरी,
आये जो नींद, फिर ना मुझको जगाये कोई.
फिर शोखी-ए-तरन्नुम गूंजी है इस फिजा में,
मुश्किल से दिल है संभला, अब ना सताए कोई.
ज़रा सा दम तो लेने दे
मैं हँस के छीन लूँगा सारे ग़म, ज़रा सा दम तो लेने दे.
ज़मीं पैरों तले है, ना ही सर पे आसमां कोई,
थकन इस तरह तारी है, ज़रा सा दम तो लेने दे.
ये माना तू बसा है, मेरे दिल की यादगाहों में,
करूँगा गुफ्तगू तुझसे, ज़रा सा दम तो लेने दे.
अभी मक्तल से लौटा हूँ, हैं साँसें खूँ भरी मेरी,
सुबह फिर क़त्ल है होना, ज़रा सा दम तो लेने दे.
मंगलवार, 23 अगस्त 2011
अज्ञान बेचता हूँ
अश्कों के बदले अब भी मुस्कान बेचता हूँ.
जब मिल सकी न मुझको मंजिल मुरादों वाली,
तब राह में खड़े हो, अरमान बेचता हूँ.
सुनता नहीं है कोई, दरबार में किसी की,
बस्ती के शोर में अब, मैं कान बेचता हूँ.
इस भागती सड़क पे इन्सां को कौन पूछे,
मैं तस्बीहों में भरकर भगवान बेचता हूँ.
मैं तंग आ चुका हूँ, है ज्ञान की ये नगरी,
अब आँखें मूँद कर बस अज्ञान बेचता हूँ.
सोमवार, 22 अगस्त 2011
शब को सेंक लेता हूँ
जला कर आशियाने फिर, मैं शब को सेंक लेता हूँ.
कहीं मैं भूल न जाऊं, कभी औकात ही अपनी,
इसी डर से हमेशा आईने को देख लेता हूँ.
यही थोड़ी सी यादें हैं, मेरी नाकामियों की अब,
बचेगा क्या मेरे दिल में, इन्हें गर फ़ेंक लेता हूँ.
पड़ी थी गैर के क़दमों में, बिल्कुल बेसहारा थी,
अना को तकिये सा लेकर, मैं सर को टेक लेता हूँ.
सोमवार, 15 अगस्त 2011
मेरा महबूब बिना बदले ही मुझको प्यार करता है
मेरा महबूब बिना बदले ही मुझको प्यार करता है.
फ़कत इक हौसला दिल का, भले हों बाजू नाकारा,
बिना पतवार के, मंझधार को भी पार करता है.
तुम्हें मैं आजकल के रहनुमा के रंग क्या बोलूं,
कभी फैलाता है दामन, कभी वो वार करता है.
कभी कंचे, कभी गोले... बहुत सी खुशियाँ लाता था,
पशेमा हूँ कि अब मुझको, वो " जी सरकार" करता है.
मगर वो राम ना आया
मरीज-ए- इश्क को कल सुबह भी, आराम ना आया.
कोई तो बात गहरी है, हमारे पैरहन में आज,
यूँही चलकर तेरी महफ़िल में, हम तक जाम ना आया.
भुलावे में हो तुम, अब भी समझते हो...वो आएगा,
बहुत हैवानियत देखी, मगर वो राम ना आया.
बहुत की कोशिशें मैंने, कि मुझ जैसा वो बन जाए,
उसके नाम भी इक शाम की, मगर बदनाम ... ना आया.
सोमवार, 8 अगस्त 2011
इसी शाख़ पे रह जाऊँगा
शनिवार, 6 अगस्त 2011
दोगलापन
झुलसते दोपहर में रात जड़ दूं
है सोचा, तेरी यादों से, ये भर दूं.
भुला के वादे सब, पोशीदगी के,
शामे-महफ़िल तुम्हारे नाम कर दूं.
मैं जो हूँ, जैसा भी बना हूँ,
ये सब इनायत है तुम्हारी,
मगर इल्ज़ाम, इन नाकामियों का,
कहो कैसे, तुम्हारे सर ये मढ़ दूं.
तुम्हारी ख्वाहिशें, हैं ख्वाब मेरे,
तुम्हारा ग़म मेरी अश्कों में शामिल,
जरा कह के हमें तू देख हमदम,
झुलसते दोपहर में रात जड़ दूं.
किन्तु पर थमा जीवन
एक किन्तु पर थमा हुआ है, अर्धसत्य सा मेरा जीवन.
प्रत्येक क्षण डरता हूँ अघटित, अकथित संभावनाओं से,
तथापि पथभ्रष्ट नहीं हुआ,
गतिमान हूँ, विपरीत इस भेडचाल के.
अब अज्ञातवास के आखिरी सत्र में,
कहाँ मुड़ सकूंगा, प्रकाशित दिशाओं की ओर.
मित्र, तुम्हे शुभकामनायें मेरी,
चुन लो नया पथ तुम.
पथप्रदर्शक नहीं, अज्ञातवासी हूँ मैं,
ना लक्ष्य का भान है, ना ही चिंता उसकी.
पग भ्रमित हैं मेरे, मेरी ही भांति.
ये थमते नहीं, उस क्षण भी,
जब एक किन्तु पर थमा हो जीवन..
अब कौन सम्भाले मुझे
अब कहाँ पहचान पाते मेरे घरवाले मुझे,
बिखरा हूँ, कोई मुस्कुराकर जोड़ ही डाले मुझे.
टूट कर चाहूँ उसे, ये बात है लाजिम मगर,
डरता हूँ, ये चाह ही, कल तोड़ ना डाले मुझे.
इस शहर में कहकहों की महफ़िलें सजती रही,
देखकर बस रो पड़े, इक घर के कुछ जाले मुझे.
मयकशी पर रोक है, मयखाने सारे बंद हैं,
बेखुदी के हाल में, अब कौन सम्भाले मुझे.
नज़्म हैं बिखरे हुए, है काफिया भी तंग सा,
राह में जब से मिले, कल "चाहने वाले" मुझे.
उसने दामन दर्द से भर के दिया खैरात में,
अब एक कतरा प्यार उसका, मार ना डाले मुझे.
बुधवार, 27 जुलाई 2011
एक बीमार नज़्म
शुक्रवार, 10 जून 2011
बरसों तक
देखना अब भी कोट की अगली जेब में पड़ा हो शायद।
वक़्त के साथ सूख भले ही गया हो,
पर रंग-ओ-बू अब भी बाकी होगी उसमे।
टटोलने पर शायद, यादों में, वो दिन भी मिल जाये कहीं।
देखना, मैं अब भी बस स्टैंड पर इंतज़ार तो नहीं कर रहा।
उत्सुक, चौकन्ना सा, हर आने-जाने वालों से नज़रें चुराता हुआ कोई दिखे,
तो पास बुला लेना।
क्या पता, एक फूल संभाल कर रखा हो उसने भी बरसों तक।
बुधवार, 1 जून 2011
Rat race
ग़म हैं सच्चे, हँसी उसकी भी सच ही है अभी।
अजनबियों से भी प्यार से वो मिलता है,
खार सी दुनिया में फूलों की तरह मिलता है।
कब वो कहीं दो घडी टिक के भी भला रहता है,
वो तो खुशबू है हवाओं की तरह बहता है।
छीन ले कोई खिलौना, तो झुंझलाता है,
अनकहे डर से कभी, खुद ही सहम जाता है।
मेरा बच्चा नाकामियों से गाफिल भी नहीं,
शुक्र है, मेरी तरह rat-race में शामिल भी नहीं।
सोमवार, 30 मई 2011
कौन सी शय लायेंगे
बाढ़ आई, तो घर दोनों ही जानिब के डूब जायेंगे।
जो मुझे छोड़ गए राहे- मुहब्बत में कभी,
नफरतों के दौर में, अब लौट के क्या आयेंगे।
घर में हो फाका तो, उज्र है रमजान में भी,
रोज़ यही फ़िक्र,रोज़ा खोल के क्या खायेंगे।
हमने लगा दी दांव पे अपनी अना भी आज,
देखें कि अबके जीत के हम कौन सी शय लायेंगे.
शनिवार, 28 मई 2011
बुकमार्क
यहीं सामने की मेज पर, अपनी नज्मों वाली डायरी में।
जब भी पलटता हूँ, वही सफहा खुलता है, ग़मों वाला।
मानो एक बुकमार्क सा बन गया है वो।
छिड़कता हूँ मुस्कुराहटों के पावडर भी पन्नों में,
पर बे-असर है हर कोशिश।
हर दफा वही पन्ने, वही ग़म, वही ख़याल आते हैं।
शायद कविताओं का कोई पुराना राब्ता है ग़मों से।
गुरुवार, 26 मई 2011
आज तक लहरों के संग बहे
थी फ़िक्र उनको, उनका ग़म क्यूँ दूसरा सहे।
इतना तो जिंदगी में सुकूँ भी मिले हमें,
सोये अगर तो जागने की फ़िक्र ना रहे।
दुनिया ने कबके छीन ली, पतवार हाथ से,
हम भी बजिद थे, आज तक लहरों के संग बहे।
हर वक़्त दूसरों के लिए जीना ठीक है,
पर काश दूसरों में कोई आप सा रहे।
बुधवार, 25 मई 2011
ग़म सहेजना इतना आसान नहीं
महीनों तक सहेजते रहते हैं ग़मों को,
रात- दिन भटकते हुए, ग़मगीन शक्लें बनाकर।
कभी छुपाते हैं चाँद, सूरज, सय्यारों को,
कभी खुद ही छुप जाते हैं।
और जब पलकों तक भर आता है गम,
तो बस उड़ेल देते हैं,
भीग जाती है जमीं सर से पैरों तक।
बहुत समझाया कि दूसरों के गम सहेजना इतना आसान नहीं।
मंगलवार, 24 मई 2011
सूखे अधूरे नज़्म
आज भी मन के किसी कोने में पड़े-पड़े सूख रहे हैं वो।
सोचता हूँ ऐसी ही किसी ठंडी अँधेरी रात में,
तोड़ कर कुछ सूखी पत्तियां नज्मों की,
एक अलाव जला लूँगा।
बड़े जतन से देर तक फिर फूंकता रहूँगा उसे।
इस उम्मीद से की कहीं इसकी राख से
जन्म ले कोई नयी नज़्म, फिनिक्स की तरह।
इक नए नज़्म की चाहत में,
पुराने सूखे नज्मों की कुर्बानी तो जायज़ ही होगी... है न।
मंगलवार, 10 मई 2011
मौत एक सोच की...
कई साल लग जाते हैं, कभी- कभी कई जिंदगियां।
पर आज जाने क्या हुआ,
एक मुंडेर पे खड़ा हुआ, कई दिनों से वो,
अचानक बेआवाज़ गिर गया।
कोई धमाका, कोई खबर तक न हुई,
निज़ामे-जहाँ वैसे का वैसा चलता रहा।
वही शब-ओ-रोज़ की फिकर, वही दुनिया का कारोबार।
पर सोच औंधा पड़ा है अब भी, फटी आँखों से देखता है मेरी तरफ...
बंद हो जाएँगी ये पलकें भी, बस कुछ पल, कुछ महीने, कुछ साल ही बाकी हैं।
तड़पता रहेगा तब तक बेआवाज़, बेनियाज़ हो कर।
तड़पना ही नसीब है अब... सोच को नहीं थी इज़ाज़त ख़ुदकुशी की।
तड़पना होगा, क्यूंकि ...
सोच की मौत होती नहीं यक-ब-यक......
रविवार, 8 मई 2011
बेवज़ह
पर क़तर डाले हैं फिर भी, कोशिशें ये...बेवज़ह।
अपनी दूरी का सबब भी मैं ही था माना, मगर,
अब भी नज़रें ढूंढती हैं, उसको ही क्यूँ बेवज़ह।
शब जो मैंने चाँद देखा, कुछ था धुंधला-धुंधला सा,
जाने फिर क्या याद आया, पुर-नम हैं आँखें बेवज़ह।
'फिर मिलेंगे' कह गया वो, छू के पेशानी मेरी,
जब है वादा वस्ल का तो, हिज्र का ग़म बेवज़ह।
तेरी रातें, तेरे सपने, तेरे सारे दर्द-ओ-ग़म,
जब हैं सारी बातें तेरी, 'हम' का चर्चा बेवज़ह।
अपनी बीनाई लुटाकर, खुश बहुत हूँ आज-कल,
जब शहर भर है अँधेरा, फिर देखना क्या बेवज़ह।
शनिवार, 7 मई 2011
फसलें अश्क की...
शाम को फिर फसलें काटी, रात भर हम रो गए।
इस शहर की नीव में, कुछ लाश हैं औंधे पड़े,
मकबरा था एक का, कई लोग कुर्बां हो गए।
कुछ तो हो अब रौशनी, कोई सहर तो आये भी,
रातों की स्याही रात भर, अश्कों से अपनी धो गए।
थी तमन्ना ये कि मंजिल पे पहुँच, सुस्ता भी लें,
है कठिन ये रहगुज़र, हम रास्ते में खो गए।
सोमवार, 2 मई 2011
डर
शौर्य है, साहस भी है जिसमे।
है निर्भीक वो,
बल भी है, बल का ज्ञान भी उसमे।
ये सब कहने की बातें हैं,
मैं अन्दर तक डरा सा हूँ।
शुक्रवार, 29 अप्रैल 2011
त्रिवेणी (inspired by Gulzar)
पौ फटे से टांक लेता हूँ, अदद इक दिन,
शाम तक फिर तार-तार हो जाती है चादर।
उलझना होगा कल सुबह, मुझे फिर सूई- धागों से।
२।
याद नहीं, कभी गुफ्तगू हुई कि नहीं,
जब भी मिले हम राह में, रस्मन मुस्कुराये हैं।
आइनों से गहरी यारी की नहीं जाती।
३।
है सोचा जब, कि लिखूं नज़्म फिर से इक नयी कोई,
हर दफा देखा है मुड़कर चाँद की जानिब।
गोया चाँद है, बस हामिला1 मेरे ख्यालों से।
1. pregnant
सोमवार, 25 अप्रैल 2011
खुद से चुप्पी की आस रहती है
क्यूँ उजालों से भर गया है दिल, क्यूँ अंधेरों की प्यास रहती है।
खोया क्या आज सोचता हूँ मैं, जो भी थी कल की नेमतें2, हैं बची,
जाने क्यूँ फिर उदास रहता हूँ, जाने किसकी तलाश रहती है।
सुबह निकला हूँ रूह से छुपकर, शाम ये सर पे चढ़ के बोलेगा,
एक उम्मीद अमन की है अब भी, खुद से चुप्पी की आस रहती है।
1. Night
2. Gifts
शुक्रवार, 22 अप्रैल 2011
एक मुद्दत से हूँ बैठा कि कोई बात चले
तुम पूछ लो कुछ, जिसमे कोई सवाल ना हो,
मैं दूं जवाब, जो दरअसल जवाब ना हो।
तेरे लफ़्ज़ों से ना तल्खी1 की महक आये मुझे,
जो दिखे मुझको वो ताअस्सुर2 भी खुशगवार रहे।
ना हो वो रोज़ की बातें कि जैसे ख़बरें हों,
कहूं मैं कुछ, तो न लगे कि अभी झगडे हों।
हो गर जिरह3 भी तो बातों के एक से सिरे निकलें,
लफ्ज़ की राहों में गुल ही हों, कांटें न जड़े निकलें।
सिक्के में, जिंदगी के, पहलू मिले तो एक मिले,
एक मुद्दत से हूँ बैठा कि कोई बात चले।
1. bitterness
2. expressions
3. argument
शनिवार, 16 अप्रैल 2011
जिंदगी इन दिनों कुछ बेतरतीब सी है..
जिंदगी इन दिनों कुछ बेतरतीब सी है।
कुछ इस तरह भटकती हैं इच्छाएं,जैसे उठता है अभी-अभी बुझे किसी चराग से धुआं ।
जैसे फैला हो बाढ़ का पानी, दूर तक .... खेतों में।जैसे बेवजह आवाजें करते हों परिंदे, आधी रात के बाद।
जानता हूँ कि अमरबेल सी लिपटी रहेंगी ये,
तब तक, जब कि छोड़ न दूं कोशिशें,
फिर एक दिन सब सहज हो जायेगा,
पर अभी....अभी तो जिंदगी बेतरतीब सी है।मंगलवार, 12 अप्रैल 2011
आज अरसे बाद
एक पुराना वादा था, शायद पूरा हो जाये।
सोचते- सोचते आधी गुजर चुकी है रात,
इतना कुछ एक नज़्म में कैसे समाएगा भला?
कैसे कह पाऊँगा वो सब, मैं इन चंद शब्दों में,
जो कोई भी कह न पाया, गुजरी कितनी सदियों में।
दिल के सफहों को पलट के कई बार पढ़ चूका हूँ मैं,
हर दफा लगता है, कुछ पन्ने छूट से गए हों।
कुछ अनकहा- अनसुना सा रह गया, जो कहीं दर्ज नहीं,
सोचता हूँ उससे मिल कर पूछ लूँगा।
और वो मेरी उलझनों से बेखबर, मुन्तजिर होगी कि कोई नज़्म पढूं।
हर आहट पे उठ बैठती होगी, कहीं ये नज़्म का उन्वान तो नहीं।
पर क्या करूँ, आज भी शायद वादा पूरा हो न पाया।
टाल कर मैं रह गया, आज भी उन ख्वाहिशों को,
जब सोचा था, लिखूंगा कुछ उसके बारे में,
आज अरसे बाद।
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है खुदी की ज़द में ही सारी खुदाई
किसी की बन्दगी क्यूँ, है खुदी की ज़द में ही सारी खुदाई।
जिसे कहती रही दुनिया, ना मिलना बेवफा है वो,
उसी ने थामा है अबके, सिखलाई हमें अब आशनाई।
ना जाने हाल क्या हो , जब फ़रिश्ते बन्दगी में हों,
भला राहें दिखाए कौन, हो किसकी रहनुमाई।
रविवार, 3 अप्रैल 2011
जैसे कि बीमार को मिल जाये इक वजहे-करार..
तू ही रौनक मेरे दिन का, तू ही शब का है निखार।
जब सुनी आमद कि तेरी, कुछ तो है ऐसा हुआ,
जैसे कि बीमार को मिल जाये इक वजहे-करार।
मेरे सारे अश्क ले कर, छुप के खुद रोता रहा,
या तो मैं हूँ नासमझ, या तूने तोडा है करार।
कसमकस है क्या कहूँ, वो मर्ज़ है या चारागर,
वो ही ग़म देता है मुझको, वो ही बनता गमगुसार।
बहुत ही खूँ निकलता है..
अगर आँखों में चुभ जाये, बहुत ही खूँ निकलता है।
कभी जब रात भर जागा, शहर की रौशनी में मैं,
सुबह सूरज से पूछा है, भला तू क्यूँ निकलता है।
हूँ तबसे मुन्तजिर, तू छोड़ कर जबसे गया हमको,
मिला जो पूछ बैठूँगा, बोलो भला कोई यूँ निकलता है।
थी जिंदगी कब काम की
देखें हो क्या इब्तेदा अब, खुशनुमा इस शाम की।
कोई हमसे पूछ बैठा, क्या है अंदाज़े- सुकून,
हँस के हमने ये कहा, थी जिंदगी कब काम की।
कितनी सदियाँ कट गयी, खुद से खुदी की जंग में,
अब तो रहमत बख्स मौला, दे दो घडी आराम की।
मंगलवार, 29 मार्च 2011
वो लौट कर आया नहीं
बीन कर इसको मैं लेकिन, आज पछताया नहीं।
आज उससे मिल लिए, बातें भी की,
पर थी जिसकी आरजू, वो लौट कर आया नहीं।
भूल जा तू उन पलों को, जिंदगी थे जो कभी,
वो तो ये कह कर गया, मैं ऐसा कर पाया नहीं।
एक सूरज ही चमकता रह गया आठों पहर,
शब में भी आँखों पे मेरी, कोई अब साया नहीं
फिर से भरमाया तुम्हें
वस्ल का वादा किया, यूँ फिर से भरमाया तुम्हें।
तू अगरचे साथ होता, जीत लेता मैं जहाँ,
अपनी नाकामी छुपा ली, बाकी बतलाया तुम्हें।
जिंदगी वो क्या कि जिसमे दूसरे न हों शरीक,
खुद ही जो समझा नहीं मैं, वो ही समझाया तुम्हें।
अपने हिस्से कि ख़ुशी से एक छत तामीर की,
धुप हो गम कि तो शायद दे सकूँ साया तुम्हें।
शनिवार, 26 मार्च 2011
डर उजाले से
जाने क्या सोच कर मुस्कुराता है, झेंप जाता है।
पलकें खोल कर बार बार देखता है, मुतमईन हो जाता है।
मेरे बच्चे ने अभी उजालों से डरना नहीं सीखा।
दो पहलू
दिन गया आवारगी में, शब को नाकारा फिरा,
जब भी खुद को देख पाया, अपनी नज़रों से गिरा।
तिश्नगी अब न रही, ता-उम्र जो हमराह थी,
खो गया वो ख्वाब भी, जब खुद ही वादे से फिरा।
उम्मीद:
एक कतरा प्यार का, एक लफ्ज़ कि कारीगरी,
इतने से ही जोड़ लूं मैं, टूटे रिश्तों का सिरा।
मैंने दामन इश्क का छोड़ा नहीं, उस वक़्त भी,
आँखें थी जलती हुई जब, दिल था नफरत से घिरा।
बेबसी
रोज अपने संगे दिल को अश्कों से पिघलाता हूँ मैं।
जीतने नफरत जहाँ की, हर रोज चला जाता हूँ मैं।
देखना चाहूँ जो खुद को, आईना मुँह फेर ले,
क़त्ल कर के खुद अना का, खुद ही शरमाता हूँ मैं।
तुम भी मानोगे, जो कहता हूँ मैं अक्सर रात-दिन,
इस भरी महफ़िल की तन्हाई से घबराता हूँ मैं।
मंगलवार, 22 मार्च 2011
ये चलो अच्छा हुआ
पूछ बैठे हाल क्या है, ये चलो अच्छा हुआ।
तुम अगर कुछ फूल लाते, तो नयी क्या बात थी,
सारे चुनकर खार लाये, ये चलो अच्छा हुआ।
हँस के जो दो बात कर ली, भींग सी पलकें गयी,
तल्खिये- अंदाज़ भूले, ये चलो अच्छा हुआ।
तेरी महफ़िल में न आते, मुतमईन से रहते हम,
बेरुखी ने जान भर दी, ये चलो अच्छा हुआ।
अच्छा नहीं लगता
तेरा ये खुश्क अंदाज़े- जवाब अच्छा नहीं लगता।
शहर में आये हो, कुछ अपना अंदाज़ तो बदलो,
भीड़ झूठों कि हो, और सच में जवाब... अच्छा नहीं लगता।
मुझे आईने भी अब कहाँ पहचान पाते हैं ,
रोज़ चेहरे पर, नया इक नकाब, अच्छा नहीं लगता।
सोचा मांग लूं, वो जिसको हम कब से तरसते हैं,
ये अपने बीच का कौमी हिजाब, अच्छा नहीं लगता।
जो दिन में बात करता है, कोई भूखा न सो जाये,
उसी कि शामों में जामे- शराब , अच्छा नहीं लगता।
बुधवार, 9 मार्च 2011
बहुत याद आया
अकेले में जब मैं कभी लडखडाया,
यहाँ स्याह दिन है , है सर पे न साया।
मुझे मेरा क़स्बा बहुत याद आया.
रविवार, 27 फ़रवरी 2011
मुझे भूलने कि आदत है
पर कहाँ भूल पाताहूँ मैं तुम्हारा चेहरा, तुम्हारी आँखें।
यहाँ तक कि एक-एक आंसू जो गिरे उन आँखों से,
और शायद उनकी वजहों को भी।
सब याद है मुझे,
तुम्हारा प्यार भी, जुदाई भी।
तुमसे रूठना भी, तुम्हें मनाना भी।
अब भी बहुत याद आ रही हो तुम।
क्या फिर भी कहोगी,
मुझे भूलने की आदत है।
सुबह की शुरुआत
चमकती रौशनी में घोड़ों की दौड़ लगी।
एक मीठे सपनों में खोयी हुई नींद को,
ठन्डे स्पर्श के अनुभव ने तोडा।
माँ ने मंदिर से लौटकर कुछ फूल सिरहाने रखते हुए,
हाथों को सर पे फेर दिया,
और सुबह की शुरुआत हुई।
दिल भरा सा रहता है
जिन पलकों पे रखता वो प्यार के सागर,
यूं दरकिनार करे हमको,
खता कुछ तो होगी,
कशमकश
तुझे मैं चाहता हूँ और बोल सकता नहीं।
मेरे नसीब में जाने ये चाँद हो कि नहीं,
तेरी रातों में सियाही मैं घोल सकता नहीं।
आज फिर छोड़ गए तुम हमको..
आज फिर छोड़ गए तुम हमको।
एक दरमियाँ आज भी रहा कायम,
चाँद शब भर मिला उदास हमको।
यूं भी तनहाइयों में क्या करते,
रात भर शाम ही फिर से जी ली है,
और फिर एक झूठे गुस्से से पूछा है,
क्यूँ आज फिर छोड़ गए तुम हमको?
चंद अधूरे शेर
सरे-शाम चाँद कि तलाश हुई, सहर भर रही आफताब की आस।
कम न हुआ आँखों से कतरा भी समंदर का,
लबसे न हुई कम, बूँद भर भी मेरी प्यास।
२
तेरा इंतज़ार जाने ख़त्म कब हो, ये इम्तिहान जाने ख़त्म कब हो।
जिसे न भूल पाया तू अब भी, उसके दिल का गुमान जाने ख़त्म कब हो।
३
नींद की बेवफाई तो ज़ाहिर है, ढूंढते हैं अब एक बेखुद सा पल।
पहले तो आते थे नींद में सपने, अब सपनों में भी नहीं मिलता नींद का आँचल।
४
रात टीसती है नासूर बनके हर घडी अब तो,
दर्द कम हो तो शायद सहर पास लगे।
तुमने पूछा क्या लगी आँख ही नहीं अब तक,
सोचा कह दूं, अभी-अभी तो जगे।
५
बनकर अजनबी जो वो मिला, कल शब हमसे,
फूल भी चुभने लगे कोई खार बनकर.
६
बुझ-बुझ के जले हो या, जल-जल के बुझे हो।
रुक रुक के चले हो, या चल-चल के रुके हो।
क्या खुदा है अब भी वहीँ, या छुट्टी पे गया है,
क्या बोझ है दिल पे पड़ा, क्यूँ इस कदर झुके हो।
७
सुबह अब तक हसीं हुई नहीं, एक उदासी कि गर्द पड़ी है जो, हटाओ
तेरा मुस्कुराना ही काफी है मेरी हंसी के लिए, है गुज़ारिश अब तो जाग जाओ।
८
जेहन पर छपी तस्वीर धुंधली न पद जाये तेरी,
शायद तभी मांगता हूँ तुझसे तेरी तस्वीरें मैं।
कोई दिन तो तीरे-नज़र चुभे दिल में और सुकून आये,
बस यही सोच, रोज बदलता हूँ तकदीरें मैं।
तेरी यादों के सहारे
रात भर करवटें बदलता रहा।
परेशां देख कर मुझको सितारे सो गए शायद,
सुबह जागा तो सूरज भी धुंधला-धुंधला था।
तेरी यादों कि खुशबू फिर से काँधों पर सजा ली है,
चलो दिन का कुछ तो इन्तेजाम रहा...
काट लेंगे फिर से तन्हा शाम,
तेरी यादों के सहारे।
हम रदीफ़ शेर
मुझे रंज हिज्र से हुआ नहीं, कि दुआ में कोई सवाल हो,
तेरे हिज्र में भी रुबाब है, तेरा वस्ल हो तो कमाल हो।
२ (अरविन्द)
मुझे तिश्नगी कि तलाश थी, तू है जामे-इश्क भरा हुआ,
लगे डर अभी भी हर एक नफस, कहीं कल न तुझको मलाल हो।
हम देर तक रोते रहे
हम हवाओं को पता बतला के खुश होते रहे।
धीरे-धीरे गुम हुआ आँखों से दरिया अश्क का,
दिल हुआ फिर संग का, हम चैन से सोते रहे।
जिस ज़मीं पर काट डाले, तुमने मजदूरों के हाथ,
लोग बरसों से वहीँ, इक इन्कलाब बोते रहे।
कल जो काँधों पर था लौटा, सातवीं में फेल था,
सोच कर मर्जे-बगावत, हम देर तक रोते रहे।
लक्ष्य
क्यों भटकता हूँ, दर-बदर?
क्या आस है, किसकी तलाश है?
पर हर बार वही जवाब दे देते हो तुम,
झांको अपने मन में।
पर, मन में तो अँधेरा है।
सन्नाटा है चारों तरफ।
इतनी चुप्पी कि हर टूटता लम्हा आवाज़ करता है।
शायद किसी कोने में छुपा बैठा हो लक्ष्य,
इक दिया तो दो, कुछ तो रौशनी आये।
आधा- अधूरा चाँद
पापा झूठ कहा था न आपने ?
कई रातों से देख रहा हूँ इसे, ये चाँद बड़ा ही नहीं होता।
रोज एक कुतरे हुए रोटी का टुकड़ा ही लगता है ये।
मैं चुप रहा, क्योंकि जानता था, समझा नहीं पाउँगा उसे,
कि मुंबई की आधी-अधूरी खिडकियों के मुट्ठी भर आसमान में,
चाँद दिखेगा तुम्हें, हमेशा आधा अधूरा ही...
एक तन्हा शहर..
फिर भी दिल पसीजे ऐसा कोई दर्द नहीं।
सैकड़ों की भीड़ में सैकड़ों ही तन्हा हैं।
शब भर चाँद भी तन्हा डोलता है यहाँ।
उफक समेटता है रात की चादर,
दे के एक और बोझल दिन।
किसी एक के जाने से शहर कितना तन्हा हो जाता है,
है ना....
शनिवार, 19 फ़रवरी 2011
मुस्कुरा देता हूँ जब-जब, हार कर जाता हूँ मैं.
मुस्कुरा देता हूँ जब-जब, हार कर जाता हूँ मैं।
दिल के दरिया में भी अब, पानी बहुत है कम बचा,
डूबकर रहना तो चाहूँ, ... पार कर जाता हूँ मैं।
अब तो कस्बों में भी बातें,हैं सियासत कि भरी,
कुछ पुराने दोस्तों से, यार डर जाता हूँ मैं।
दिल जो हो मेरे मुखालिफ , तो मुझे कोई फ़िक्र क्या,
उसकी शरीके- रहजनी से, हर बार मर जाता हूँ मैं।
ये मेरी सोहबत नहीं..
तू मुझे पर याद रक्खे, ये तेरी आदत नहीं।
हमसफ़र हो सकता हूँ मैं, दर्देगम की राह में,
मुश्किलों में रहनुमा हो, ये मेरी सोहबत नहीं।
पहले थे हम मोहतरम, अब "तू" का उन्वा हो गए,
आइना भी बोल उट्ठा, कुछ बची शोहरत नहीं।
जब तुम्हें समझा सकूँ, अरसे से हूँ मैं मुन्तजिर,
उससे पहले टूट जाऊँ, इतनी कम उल्फत नहीं।
शुक्रवार, 18 फ़रवरी 2011
गीला सा चाँद
आवाज़ सुनी मैंने रोने की
देखा एक फूल सा बच्चा रो रहा था।
पूछा जब मैंने, तो असहाय गुस्से से, उसने कहा-
" झूठ कहते हैं सब, पापा भी,
कि मर गयी मेरी माँ।
अभी अभी तो देखा है मैंने उसे, चाँद में,
आप बोलो, आपने भी तो देखा था न, अभी-अभी। "
मैं हिम्मत नहीं जुटा सका , सच कहने की।
और तब तक, पिछली सारी बातों से बेखबर,
वो देखने लगा था, फिर चाँद को।
उभर आया था उसकी पनियाई आँखों में,
फिर एक गीला सा चाँद।
An old poem, written around 2002. Found my treasure diary, few days back :-)
रविवार, 23 जनवरी 2011
अथर्व, तुम्हारे लिए
जुड़ना एक नाम का, शरीर से
कोई छोटी घटना नहीं।
किसी नोवेल का प्लाट है ये,
या किसी ग़ज़ल का पहला हर्फ़।
आज एक नाम देकर तुम्हें, खुश हो जायेंगे सब।
पर तुम... तुम्हें तो शायद पता भी नहीं होगा
कि एक नाम के साथ, मेरे सपनो का बोझ भी,
ता-उम्र चलेगा तुम्हारे साथ।
कुछ ख्वाब अधबुने से दूंगा तुम्हें, विरासत में,
और उसी बोझ तले बड़े होगे तुम।
मैं खुश होता देखता रहूँगा तुम्हें, दबते उस बोझ तले।
और एक दिन, इन्ही पन्नो पे लिखोगे तुम
अपने अधबुने ख्वाबों की कहानी।
जानता हूँ, पर क्या करूँ
एक अजीब, सदियों पुरानी परंपरा है ये विरासत।